नक्सल समस्या आज राष्ट्रीय समस्या है और इससे निपटने का कार्य सिर्फ केन्द्र सरकार का ही नहीं बल्कि प्रभावित राज्य सरकारों का भी है। कुछ राज्यों ने सुरक्षा और अन्य प्रभावी योजनाओं के लिए तमाम कदम उठाये हैं लेकिन उ.प्र. सरकार अपने राज्य के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिले सोनभद्र में ऐसी कोई कवायद शुरू करने के मूड में नहीं है।
१९५० के बाद रिहन्द बांध बनने के उपरान्त सोनभद्र को र्जान्चल के रूप में विकसित किया जाने लगा साथ ही औद्योगिक विकास को लेकर कदम भी उठाये गये। ओबरा, अनपरा ताप विद्युत परियोजना तथा एनटीपीसी हिण्डाल्को इण्डस्ट्रीज, जे.पी.सिमेण्ट, लेन्को पावर सहित तमाम औद्योगिक प्रतिष्ठान सोनभद्र में स्थापित हैं बावजूद इसके गरीब आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण करने के बाद भी उनसे किये गये वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं मिला। लिहाजा विस्थापित-आदिवासी आज अपने हक के लिए किसी भी हद तक जाने की बात कर रहा है।
उ.प्र. सरकार नक्सल प्रभावित जिला सोनभद्र के आदिवासियों को लेकर कितना संजीदा है इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विद्युत इकाई 'सी' बनने के लिए जिन आदिवासियों ने अपनी भूमि दी उन्हे नौकरी नहीं मिली और उस जमीन को लेन्को पावर प्राइवेट लिमिटेड को स्थानान्तरित कर दी गयी। मीडिया द्वारा पूछे जाने पर उ.प्र.पावर कारपोरेशन के अधिकारी इसे शासनादेश बतातें हैं।
हालांकि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र की समस्या सुलझाने में जनप्रतिनिधियों की काफी जिम्मेदारी होती है और इस समस्या की बाबत क्षेत्रीय विधायक से पूछा गया तो उन्होने गैर बसपा सरकारों के Åपर आरोप लगाये और इस बात को सिरे से खारिज कर दिया गया। जिम्मेदारी लेना तो दूर इस समस्या को सुलझाने का उनके पास कोई विकल्प नहीं ।
कुल मिलाकर इस कहानी में कुछ ऐसे कटु आध्याय हैं जिसे देखकर देश के लोकतान्त्रिक स्वरूप को भी शर्म आयेगी। १९७८ में इस परियोजनाओं की शुरूआत के दौरान तत्कालिक कांग्रेस की सरकार ने आदिवासियों के पुर्नवास और नौकरी के लिये बड़े निर्णय लिये थे फिर बाद में गैर कांग्रेसी सरकारों ने इन परियोजनाओं को पैसा बनाने की मशीन बना लिया। बीते दो दशकों से इन आदिवासियों का भविष्य कागजों में दबा हुआ है और आदिवासियों के हित में आवाज उठाने वाले लोगों को सत्याग्रह के बावजूद जेल भी जाना पड़ा। तमाम सरकारी चक्रव्यू में फंसा यह मामला सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में है। हजारों आदिवासियों के भविष्य को लेकर लोकतान्त्रिक स्वरूप में मांग कर रही युवा कांग्रेस के लोगों के राज्य सरकार अपना जवाब लाठी और डण्डे से दे रही है। दशकों से चल रहे असन्तोष के बाद नक्सलवाद और पनपे तो उ.प्र. में राज कर रही गैर कांग्रेसी सरकार ही जिम्मेदार हैं।
उ.प्र. सरकार नक्सल प्रभावित जिला सोनभद्र के आदिवासियों को लेकर कितना संजीदा है इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विद्युत इकाई 'सी' बनने के लिए जिन आदिवासियों ने अपनी भूमि दी उन्हे नौकरी नहीं मिली और उस जमीन को लेन्को पावर प्राइवेट लिमिटेड को स्थानान्तरित कर दी गयी। मीडिया द्वारा पूछे जाने पर उ.प्र.पावर कारपोरेशन के अधिकारी इसे शासनादेश बतातें हैं।
हालांकि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र की समस्या सुलझाने में जनप्रतिनिधियों की काफी जिम्मेदारी होती है और इस समस्या की बाबत क्षेत्रीय विधायक से पूछा गया तो उन्होने गैर बसपा सरकारों के Åपर आरोप लगाये और इस बात को सिरे से खारिज कर दिया गया। जिम्मेदारी लेना तो दूर इस समस्या को सुलझाने का उनके पास कोई विकल्प नहीं ।
कुल मिलाकर इस कहानी में कुछ ऐसे कटु आध्याय हैं जिसे देखकर देश के लोकतान्त्रिक स्वरूप को भी शर्म आयेगी। १९७८ में इस परियोजनाओं की शुरूआत के दौरान तत्कालिक कांग्रेस की सरकार ने आदिवासियों के पुर्नवास और नौकरी के लिये बड़े निर्णय लिये थे फिर बाद में गैर कांग्रेसी सरकारों ने इन परियोजनाओं को पैसा बनाने की मशीन बना लिया। बीते दो दशकों से इन आदिवासियों का भविष्य कागजों में दबा हुआ है और आदिवासियों के हित में आवाज उठाने वाले लोगों को सत्याग्रह के बावजूद जेल भी जाना पड़ा। तमाम सरकारी चक्रव्यू में फंसा यह मामला सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में है। हजारों आदिवासियों के भविष्य को लेकर लोकतान्त्रिक स्वरूप में मांग कर रही युवा कांग्रेस के लोगों के राज्य सरकार अपना जवाब लाठी और डण्डे से दे रही है। दशकों से चल रहे असन्तोष के बाद नक्सलवाद और पनपे तो उ.प्र. में राज कर रही गैर कांग्रेसी सरकार ही जिम्मेदार हैं।
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