पीढ़ियों से उत्तर-प्रदेश के एक मात्र आदिवासी-दलित बाहुल्य जनपद के लोगों को एक बार फिर नये बसेरे बनाने होंगे क्योंकि माया सरकार की निगाहें उन पर भारी पड़ रही हैं। ७० एवं ८० के दशक में तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा ३१३० मे.वा. की अनपरा तापीय परियोजना की स्थापना के लिए हजारों आदिवासियों-दलितों की कृषि योग्य एवं उनके कब्जे की भूमि उ.प्र. राज्य विद्युत परिषद द्वारा जनहित में सार्वजनिक प्रयोजन हेतु अधिग्रहित की गयी। आदिवासियों-दलितों के पुर्नवास एवं पुर्नबसाहट हेतु नियमों-अधिनियमों का हवाला देकर हजारों एकड़ भूमि पर परियोजना का निर्माण शुरू हुआ तथा आदिवासियों-दलितों को विश्वास दिलाया गया कि हम प्रत्येक परिवार के एक व्यक्ति को स्थायी रोजगार देंगे तथा विस्थापितों को अन्य सुविधाएं उपलब्ध करायी जायेगी। सन १९९४ तक प्रस्तावित ३१३० मे.वा. में से सिर्फ १६६० मे.वा. का उत्पादन शुरू हो पाया। अनपरा 'अ' एवं 'ब' के उत्पादन में आने के बाद १९९४ तक ३०४ विस्थापित परिवार के सदस्यों को स्थायी सेवायोजन दिया गया। वहां भी आदिवासी-दलित उपेक्षित रहा। उसकी भागेदारी स्थायी सेवायोजन में शून्य मात्र रही। सीधे-साधे निरीह आदिवासियों को परियोजनाओं के विस्तार होने पर सेवायोजन का भरोसा दिलाकर दिग्भ्रमित कर रखा गया। सन १९९४ से २००७ तक आदिवासियों-दलितों को अनपरा 'सी' एवं 'डी' परियोजना में स्थायी रोजगार देने के लिए बकायदे परियोजना द्वारा पत्र सौंपे गये। सीधे-साधे आदिवासियों-दलितों ने परियोजनाओं के झूठे पत्रों को अमूल्य धरोहर की तरह सजो कर रखा। उन्हे क्या मालूम था कि उत्तर-प्रदेश में कोई दलितों की देवी ऐसी भी आयेगी जो संगीनो के साये के नीचे उनके हक-हकूक छीनकर अपने को अपने को दलितों की देवी होने का दावा करेगी।
वर्ष २००७ में अनपरा 'सी' को माया सरकार ने निजी क्षेत्र को सौंप दिया तथा अनपरा 'डी' का निर्माण राज्य सरकार स्वयं कर रही है। परियोजनाओं के निर्माण शुरू होने से आदिवासियों-दलितों की बरसों पुरानी आस एक बार फिर जगी और बड़ी उम्मीद से आदिवासियों-दलितों ने सुश्री मायावती सरकार की परियोजनाओं के निर्माण शुरू कराये जाने की पहल से बड़ी आशाएं सजोएं रखी थी। आदिवासियों-दलितों का भ्रम माया सरकार ने ताश के पत्तों की तरह बिखेर दिया। संगीनों के साये में परियोजना का निर्माण करा रही माया सरकार ने विस्थापित आदिवासी-दलितों को पहली बार अपना असली दलित प्रेम दिखाया है तथा उनकी आखिरी उम्मीद को झकझोर कर रख दिया। माया सरकार ने २००७ में परियोजनाओं के निर्माण शुरू होने के बाद आदिवासियों-दलितों को सेवायोजन देने से इन्कार कर दिया। हक मांगने वाले आदिवासियों-दलितों की आवाज माया सरकार बन्दूक के बट तले दफन करना चाहती है। हक मांगने वाले आदिवासी-दलितों के लिए मौत या कालापानी का फरमान अघोषित रूप से जारी किया गया है।
लगभग २० हजार आदिवासी-दलित इस सरकारी गुण्डागर्दी का शिकार हुए हैं। आदिवासी-दलितों के पास कोई विकल्प न होने की स्थिति में कोई नक्सली बनने की बात करता है तो कोई आत्मदाह करने की बात करता है जबकि संवेदनहीन माया सरकार इन सबको अनसूना कर हक मांगने वालों को नक्सली कहने की बात कहती है। आखिर इन आदिवासियों@दलितों का गुनाह सिर्फ इतना है कि जब-जब जो सरकारें आयीं उन्हे छलती चली गयी। सीधा-साधा आदिवासी अपना सर्वस्य देश हित में देकर आज उसके बदले रिहन्द का विषैला पानी, कारपोरेट के कब्जे वाली जहर युक्त हवा तथा अपने हक-हकूक की बात कहने पर पुलिस का डण्डा-उत्पीड़न पा रहा है। केन्द्र एवं राज्य सरकार की नक्सल विरोधी मुहिम को एक बार फिर सोचना पड़ेगा कि क्या सरकारी उत्पीड़न-उपेक्षा ही तो इन भोले-भाले आदिवासियों-दलितों को नक्सली नहीं बना रहा है। क्योंकि एक बार फिर से माया सरकार सत्ता की हनक व पुलिस की बन्दूक के दम पर आदिवासियों-दलितों का आशियाना उजाड़ेगी जिसकी शुरूआत हो चुकी है और सभी की निगाहें उस अन्त पर टिकी हैं कि कितने आदिवासियों-दलितों की लाश पर इन परियोजनाओं का निर्माण पूरा होगा क्योंकि एक तरफ आधुनिक असलहों से लैस माया सरकार की हाईटेक पुलिस है तो दूसरी तरफ आदिवासी-दलित अपने हक-हकूक की आखिरी लड़ाई के लिए पारम्परिक हथियारों के साथ मोर्चा सम्भालने को तैयार है।
वर्ष २००७ में अनपरा 'सी' को माया सरकार ने निजी क्षेत्र को सौंप दिया तथा अनपरा 'डी' का निर्माण राज्य सरकार स्वयं कर रही है। परियोजनाओं के निर्माण शुरू होने से आदिवासियों-दलितों की बरसों पुरानी आस एक बार फिर जगी और बड़ी उम्मीद से आदिवासियों-दलितों ने सुश्री मायावती सरकार की परियोजनाओं के निर्माण शुरू कराये जाने की पहल से बड़ी आशाएं सजोएं रखी थी। आदिवासियों-दलितों का भ्रम माया सरकार ने ताश के पत्तों की तरह बिखेर दिया। संगीनों के साये में परियोजना का निर्माण करा रही माया सरकार ने विस्थापित आदिवासी-दलितों को पहली बार अपना असली दलित प्रेम दिखाया है तथा उनकी आखिरी उम्मीद को झकझोर कर रख दिया। माया सरकार ने २००७ में परियोजनाओं के निर्माण शुरू होने के बाद आदिवासियों-दलितों को सेवायोजन देने से इन्कार कर दिया। हक मांगने वाले आदिवासियों-दलितों की आवाज माया सरकार बन्दूक के बट तले दफन करना चाहती है। हक मांगने वाले आदिवासी-दलितों के लिए मौत या कालापानी का फरमान अघोषित रूप से जारी किया गया है।
लगभग २० हजार आदिवासी-दलित इस सरकारी गुण्डागर्दी का शिकार हुए हैं। आदिवासी-दलितों के पास कोई विकल्प न होने की स्थिति में कोई नक्सली बनने की बात करता है तो कोई आत्मदाह करने की बात करता है जबकि संवेदनहीन माया सरकार इन सबको अनसूना कर हक मांगने वालों को नक्सली कहने की बात कहती है। आखिर इन आदिवासियों@दलितों का गुनाह सिर्फ इतना है कि जब-जब जो सरकारें आयीं उन्हे छलती चली गयी। सीधा-साधा आदिवासी अपना सर्वस्य देश हित में देकर आज उसके बदले रिहन्द का विषैला पानी, कारपोरेट के कब्जे वाली जहर युक्त हवा तथा अपने हक-हकूक की बात कहने पर पुलिस का डण्डा-उत्पीड़न पा रहा है। केन्द्र एवं राज्य सरकार की नक्सल विरोधी मुहिम को एक बार फिर सोचना पड़ेगा कि क्या सरकारी उत्पीड़न-उपेक्षा ही तो इन भोले-भाले आदिवासियों-दलितों को नक्सली नहीं बना रहा है। क्योंकि एक बार फिर से माया सरकार सत्ता की हनक व पुलिस की बन्दूक के दम पर आदिवासियों-दलितों का आशियाना उजाड़ेगी जिसकी शुरूआत हो चुकी है और सभी की निगाहें उस अन्त पर टिकी हैं कि कितने आदिवासियों-दलितों की लाश पर इन परियोजनाओं का निर्माण पूरा होगा क्योंकि एक तरफ आधुनिक असलहों से लैस माया सरकार की हाईटेक पुलिस है तो दूसरी तरफ आदिवासी-दलित अपने हक-हकूक की आखिरी लड़ाई के लिए पारम्परिक हथियारों के साथ मोर्चा सम्भालने को तैयार है।
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