मंगलवार, 25 जून 2013

स्कूल जाने की उम्र में खतरों से खेल रहे

ऽ पैसा न होने की वजह से पढ़-लिख कर अधिकारी नहीं बन पाने का मलाल
सांप का पिटारा लिए मासूम।

केंद्र एवं प्रदेश सरकार की मंशा के अनुरूप शिक्षा महकमा सर्व शिक्षा अभियान के तहत गरीब तबके बच्चों को कितनी शिक्षा मुहैया करा रहा है इसका अंदाजा टोकरी में सर्प लेकर घूम रहे बच्चों को देख कर सहज ही लगाया जा सकता है। पापी पेट के लिए दस वर्षीय रफीनाथ पढ़ने-लिखने की उम्र में नागराज से खेल रहा है। चंद रुपयों के लिए बालक स्कूली बैग की जगह सांप के पिटारों को लेकर नगर और गांवों में दिन-दिन भर भ्रमण कर रहे हैं। प्रतिवर्ष शिक्षा विभाग के अधिकारी और कर्मचारी बच्चों एवं अभिभावकों को जागरूक करने के लिए लाखों रुपये पानी की तरह खर्च करते हैं। बावजूद इसके गरीब तबके के बच्चों को शिक्षा उपलब्ध नही हो पा रही है। गुरुवार को राबर्ट्सगंज नगर में इलाहाबाद जनपद के शंकरगढ़ के मूल एवं राबर्ट्सगंज नगर के अस्थायी निवासी रफीनाथ (10) पुत्र कपूरनाथ समेत आधा दर्जन बच्चे पढ़ने की उम्र में पिटारे में सर्प लेकर घर-घर घूम रहे हैं। अमर उजाला से बातचीत के दौरान रफीनाथ ने बताया कि मेरे अभिभावकों के पास पैसा नहीं है इसलिए मैं चाह कर भी पठन-पाठन नहीं कर पा रहा हूं। पेट के लिए दिनभर बांबी में नागराज को लेकर लोगों को दर्शन कराता हूं, शाम तक करीब पचास से सौ रुपये कमा कर अपनी मां को ले जाकर दे देता हूं। कमाई में से दस रुपया नाश्ता के लिए प्रतिदिन मिलता है। पढ़ाई करने का मन तो बहुत है लेकिन पैसा न होने की वजह से पढ़-लिख कर अधिकारी नहीं बन पा रहा हूं।

सरकार के पेट से निकली राजनीतिक पतनशीलता

देश की राजनीतिक पतनशीलता सरकार के पेट से ही निकली हुई है। इसकी बानगी देश के हर इलाके में देखने को मिल रही है, लेकिन आदिवासी इलाकों में यह कुछ ज्यादा ही दिखाई देती है। चाहे वह उड़ीसा का आदिवासी इलाका हो या फिर झारखंड का। उत्तर प्रदेश का आदिवासी इलाका भी इससे अछूता नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल जनपद सोनभद्र में राजनीतिक पतनशीलता की झलक आसानी से देखी जा सकती हैं। जहां आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वननिवासियों को देश की आजादी के करीब साढ़े छह दशक बाद भी उनका हक नहीं मिल पाया है, ना ही भविष्य में मिलने की संभावना दिखाई दे रही है। 

बाहरी लोगों को अचरज होगा कि इस जनपद में कानूनी रूप से जंगल लगभग 57 फीसदी भूभाग पर अवस्थित है। पर देखने और जांच करने पर इस आंकड़े का आधा भी प्रमाणित हो जाए तो बड़ी बात होगी। हजारों एकड़ वन भूमि तो दस से अधिक उन बड़े कारखानों को खैरात में दे दी गई है जो यहां माननीयों के रूप में मानवीकृत हैं तथा उनके पदाधिकारी विकास  पुरुष (ध्यान रहे कारखानों के मालिक नहीं, मालिकों के सीईओ) के रूप में सम्मानित किए जा रहे हैं। यह प्रायोजित बिडंबना ही हैं कि एशिया का विशाल बांध कहा जाने वाला रिहंद बांध जो पंत सागर के नाम से विख्यात है, आज कारखानों की राख से पटता जा रहा है। सवाल है कि इस पतनशीलता के लिए किसे उत्तरदायी माना जाए ?

यहां यह प्रसंग कि सोनभद्र में 57 फीसदी जंगल कानूनी रूप से कैसे हो गया। इस आलेख को विस्तृत करना होगा पर संक्षेप में यह जानकारी देना अनिवार्य है कि सोनभद्र के दक्षिणांचल का परिक्षेत्र को अंग्रेजों ने ‘अनुसूचित परिक्षेत्र’ का दर्जा दिया था तथा अपने कानून इस परिक्षेत्र में लागू नहीं किए। ऐसा करके अंग्रेजों ने इस क्षेत्र का भला ही किया। भला इस अर्थ में कि इस क्षेत्र की पैमाइस नहीं कराया और इस क्षेत्र को तत्कालीन राजाओं एवं ज“मीनदारों से अलग कर दिया। एक तरह से अंग्रजों के अपने स्वामित्व वाला परिक्षेत्र तथा यहां की एक तहसील दुद्धी को तो विक्टोरिया की रियासत ही बना दिया। आजादी के बाद जाहिर है फिर तो यहां जंगल को कागज में विस्तृत रूप में होना ही था। आज तकलीफ इस बात की है कि वह जंगल अब है कहां? जमींदारी टूटते समय आखिर उन वनवासियों के नाम से जमीनें क्यों नहीं आवंटित की गईं, जबकि वे जोत-कोड़ व घर मकान के साथ काबिज थे। आज नये वन अधिनियम के तहत उन्हें भूमि देने की कवायदें क्यों की जा रही हैं, इसे रंगीन नाटक नहीं कहा जाएगा तो क्या कहा जाएगा ?

औद्योगिक स्थापनाओं ने यहां जैसी बर्बरताओं को उगाया है। वैसी मिसालें कहीं अन्यत्र मिलना मुश्किल होगा। यह करूण शोध होगा पता लगा लेना कि सोनभद्र के वन विभाग ने जितने वनवासियों एवं आदिवासियों को वन अधिनियम की धारा-चार और बीस के तहत विस्थापित किया है, क्या उससे अधिक देश के किसी दूसरे हिस्से में किया है? आंकड़े की बात करें तो लाखों के पार वनवासी और आदिवासी अब तक विस्थापित किए जा चुके हैं। क्या यह मजाक नहीं है कि आज उन्हें जमीन देने की बातें की जा रही हैं। आखिर इससे बड़ी दूसरी चुनौती क्या हो सकती है? इधर हाल ही में जिन जातियों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल किया गया है, उन्हें भी तो अभी तक कानूनी दर्जा नहीं मिल पाया है। पेंच कहां फंसा है। इन सब पतनशीलताओं को समझाना मुश्किल नहीं।

पेंच तो जाहिर है कि सरकारों की राजनीतिक इच्छा शक्ति में है। हमारी सरकारें अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से बाहर निकलती जा रही हैं। हर पांच साल बाद सरकार नया रूप धर रही है, चुनाव हो रहे हैं जनता वोट दे रही हैं और सरकारें चल भी रही हैं। फिर काहे की चिन्ता। किस बात की चिन्ता। सरकार भी तो उनकी नहीं जो गरीब हैं, विस्थापित हैं! उनकी कभी सरकार बन सकती है इसकी दूर दूर तक संभावना नहीं। संभावना तो इस बात की भी नहीं है कि उन्हें दो जून की रोटी भी समानुपातिक ढंग से मिल सकेगी, फिर क्या होगा? यहां वह मामला नहीं कि जो होगा ठीक ही होगा। सभी जानते हैं कि सोनभद्र में ठीक नहीं हो रहा। यहां ठीक केवल एक शब्द है जो अथर्हीन है। यहां की औद्योगिक संस्कृति ने एक तरह से राज्य की विनम्रता ही छीन लिया है, जो जंगल कभी विनम्रता का प्रतीक हुआ करता था उसमें हर ओर आग लगी हुई है। कौन सी चिनगारी कहां गिरेगी किसी को नहीं मालूम। कौन जलेगा, कौन मरेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। आग का आलम यह है कि जो वनवासी कभी लाल वर्दी वाले चैकीदार को देखते ही गांव छोड़कर भाग जाया करते थे, वे आज वर्दीधारी हो गए हैं। उनके कन्धों पर बन्दूकें लटकी हुई हैं। वे जो संवाद की भाषा तक नहीं जानते थे उनके लिए बन्दूक की भाषा और बोली मुहब्बत की बोली और भाषा हो गई है। इसे समझने और महसूस करने के लिए संवेदनशील दिल की आवश्यकता होगी। कानून इस पर तभी विचार कर सकता है जब वह अपनी जड़ता तोड़े और जल, जमीन और जंगल के साथ-साथ जन पर भी विचार करे। जन विहीन जंगल का क्या मतलब ? जन हैं तो जंगल है। जन बचेंगे तो जंगल खुद-ब-खुद बच जाएगा।

माना जाता है कि बिना औद्योगिक इकाइयों के निर्माण से विकास कैसे होगा। विकास आज के समय में उद्योगों के निर्माण का दूसरा नाम है। पर किसका विकास हुआ क्षेत्र का या यहां के जन का ? यहां के लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि ना ही जन का विकास हुआ, ना ही क्षेत्र का। यहां के दो फीसदी मूल निवासियों को भी इन कारखानों से नहीं जोड़ा जा सका है। अब तो भारी मशीनीकरण के युग में रोजगार की दूर-दूर तक संभावना भी नहीं है। वैसे ही सारे कारखाने वाले कर्मचारियों के मैनुअल आॅडिट के तहत छंटनी पर छटनी किए जा रहे हैं। आज की स्थिति यह है कि कारखाने वाले कमर्चारियों का नियमितीकरण ही नहीं कर रहें हैं। सारे काम ठेका मजदूरों (कुशल एवं अकुशल दोनों) एवं कर्मचारियों से कराए जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में कर्मचारियों की भर्ती एवं नियमितीकरण का सवाल ही कहां ह? औद्योगिक विकास कानारा ‘हर हाथ को काम’ के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह साबित करे कि उसकी उपयोगिता समाज को है या नहीं। जाहिर है जब औद्योगिक संरचनाएं जन का सम्मान करेंगी तभी जन भी उसका सम्मान करेंगे। यही टूट रहा है। दुनिया जानती है जन के दिलों का टूटना। किसी भी सभ्यता के लिए सामान्य परिघटना नहीं है।

औद्योगिक विकास का प्रतिफल सोनभद्र में अब साफ-साफ दिखने लगा है। गांव के गांव विकलांगता के शिकार होते जा रहे हैं। यहां का पानी पीने लायक नहीं रह गया है। पानी में फ्लोराइड ओर दूसरे तरह के विषैले रसायन जो कारखानों से उत्सर्जित होते हैं, मिलते जा रहे हैं। हर ओर धूल-धुआं और राखड़।  तर्क दिया जा रहा है कि इसका कारण वन का कटाव है। अरे भाई किसने वन कटवाया? किसने कारखानों को लगवाया? और आज कौन तोड़वा रहा है गिट्टी के पहाड़ों को ? कौन निकलवा रहा है नदियों का बालू ?


तो यह तस्वीर है उ.प्र. के एक जिले सोनभद्र की, जहां दसेक कारखाने खड़े हैं और भी खड़े होंगे जैसा कि प्रस्तावित हैं। यहां के आदमी लंगड़े हो रहे हैं। कारखाने सेंसेक्स बड़ा रहे हैं और लोगों के घरों के चूल्हे बुझ रहे हैं। अस्पताल हैं उनमें केवल दवाइयां नहीं हैं। डाक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस में व्यस्त हैं। स्कूल हैं जिनमें प्रधान जी की भैंसे बांधी जा रही हैं। स्कूल के सरकारी अघ्यापकों के बच्चे नर्सर्री स्कूल में पड़ रहे हैं। जिलाधिकारी और एसपी स्थानांतरण से परेशान हैं। कौन सा अदना कर्मचारी उन्हें राजधानी के मुख्यालय से जोड़वा देगा ज्ञात नहीं। डर तो शाश्वत है।  शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, रहवास की सुरक्षा का नारा लगाने वाली व्यवस्था की चुनौतियों से किसे लड़ना है, तंत्र को या जन को ? सोचना यही है। यही सोचना ही जनतंत्र को सबल भी बनाएगा। पर क्या हम सोच रहे हैं?       
                                                       
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं। लेखक उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद के राबर्ट्सगंज के रहने वाले हैं। उन्होंने आदिवासियों पर कई किताबें लिखी हैं. मोबाइल नंबर-09451184771 )