उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर पर मिर्जापुर जिले में विंध्याचल की पहाड़ियों में गंगा तट पर चुनार किला स्थित है। इसका प्राचीन नाम चरणाद्रि था। चैदहवीं शताब्दी में यह दुर्ग चंदेलों के अधिकार में था। सोलहवीं शताब्दी में चुनार को बिहार तथा बंगाल को जीतने के किए पहला बड़ा पढ़ाव समझा जाता था। शेरशाह सूरी ने 1530 ई. में चुनार किले को ताज खाँ की विधवा श्लाड मलिका से विवाह करके इस शाक्तिशाली किले पर अधिकार कर लिया। 1532 ई. में हुमायूँ ने चुनार किले पर कब्जे के इरादे से घेरा डाला परंतु चार महीने तक कडे़ प्रयास एवं घेरे के बाद भी सफलता हाथ न लगी। अंत में हुमायूँ ने शेरशाह सूरी से सन्धि कर ली और चुनार का किला शेरशाह के पास ही रहने दिया। 1538 ई. में हुमायूँ ने अपने चालाकी तथा तोपखाने की सहायता से छह महीनों के प्रयास के बाद चुनारगढ़ एवं उसके किले पर अधिकार कर लिया। अगस्त, 1561 ई. में अकबर ने चुनार को अफ्गानों से जीता और इसके बाद यह दुर्ग मुगल साम्राज्य का पूर्व दिषा में रक्षक दुर्ग बन गया।
चुनार का दुर्ग सातवीं सदी के काल का निर्मित बताया जाता है। यह एक विशाल और सुदृढ़ दुर्ग है, इसके दो ओर गंगा बहती है तथा एक गहरी खाई है। यह दुर्ग चुनार के प्रसिद्ध बलुआ पत्थर का बना हुआ है और भूमि तल से काफी ऊँची पहाड़ी पर बना है। इसका मुख्य द्वार लाल रंग के पत्थर का है, जिस पर काफी कलात्मक नक्काशी की गयी है। किले के अन्दर गहरे तहखाने एवं रहस्यमय सुरंगें बनी हुई हैं। इस किले में कई स्मारक आज भी उसी दषा में है जैसे कि पूर्व में थी। इनमें कामाक्षा मन्दिर, भर्तहरि का मन्दिर, दुर्गाकुण्ड आदि प्रमुख रूप से प्रसिद्ध हैं। यहाँ की ज्यादातर प्रसिद्ध मस्जिद मुअज्जिन है, जिसमें मुगल सम्राट फर्रुखसियर के समय में मक्का से लाये हसन-हुसैन के पहने हुए वस्त्र सुरक्षित हैं। गुप्तकाल से लेकर अठारहवीं सदी तक के अनेक अभिलेख यहाँ से प्राप्त हुए हैं। मौर्यकालीन स्तम्भ चुनार के भूरे बलुआ पत्थर को तराशकर बनाये गये थे। अनुमान किया जाता है कि चुनार के आस-पास मौर्यकाल में एक बड़ा कला केन्द्र स्थापित था, जो मौर्य सरकार के सरंक्षण में काम करता था। चुनार में लकड़ी, चीनी मिट्टी, पत्थर एवं मिट्टी की सुन्दर कलात्मक वस्तुएँ उस समय बनती थीं। जो आज लगभग विलुप्त होती जा रही है।
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