सोमवार, 1 सितंबर 2014

जेपी समूह को 409 करोड़ माफ

उप्र सरकार ने वन बंदोबस्त अधिकारी के फैसले के खिलाफ राज्य के प्रमुख वन संरक्षक को नहीं करने दी अपील 


by Shiv Das

वन बंदोबस्त अधिकारी वीके श्रीवास्तव के फैसले के खिलाफ उत्तर प्रदेश वन विभाग के प्रमुख वन संरक्षक ने राज्य सरकार को पत्र लिखकर उच्च न्यायालय, इलाहाबाद में अपील करने की राय मांगी, लेकिन राज्य सरकार ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया। उत्तर प्रदेश सरकार के सचिव पवन कुमार ने 12 सितंबर, 2008 को वन विभाग के प्रमुख वन संरक्षक को पत्र संख्या-3792/14-2-2008 के माध्यम से राज्य सरकार के निर्णय से अवगत भी कराया और सोनभद्र में भारतीय वन अधिनियम की धारा-20 के तहत विज्ञप्ति जारी किए जाने हेतु दो दिनों के अंदर आवश्यक प्रस्ताव शासन को भेजने का निर्देश दिया। 

उत्तर प्रदेश सरकार के सचिव (वन) ने 25 नवंबर, 2008 को अधिसूचना संख्या-4952/14-2-2008-20(17)/2008 के माध्यम से सोनभद्र में भारतीय वन अधिनियम की धारा-20 के तहत अधिसूचना जारी कर शासकीय दस्तावेजों में वन क्षेत्र को कम कर दिया, जिसमें जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड के पक्ष में निकाली गई वन भूमि भी शामिल थी। इतना ही नहीं अपनी कारगुजारियों को कानूनी जामा पहनाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने उच्चतम न्यायालय में लंबित जनहित याचिका (सिविल)-202/1995 में आईए संख्या-2469/2009 दाखिल कर जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड के पक्ष में विवादित खनन लीज का नवीनीकरण करने के लिए अनुमति मांगी। साथ ही उसने उप्र सरकार द्वारा 25 नवंबर, 2008 को जारी भारतीय वन अधिनियम की धारा-20 के तरह जारी अधिसूचना की पुष्टि करने का अनुरोध किया। उच्चतम न्यायालय ने मामले में सीईसी से रिपोर्ट तलब की। जवाब में सीईसी के सदस्य सचिव एमके जीवराजका ने 10 अगस्त, 2009 को फाइल संख्या-1-19/सीईसी/एससी/2008-पीटी-21 के माध्यम से उच्चतम न्यायालय के रजिस्ट्रार के पास अपनी संस्तुति दे दी। 

अगर केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) की ओर से की गई कार्रवाइयों पर गौर करें तो सोनभद्र के गैर-सरकारी संगठन वनवासी पंचायत के सदस्य रमेश कुमार ने साल-2008 में पत्र लिखकर भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-4 के तहत अधिसूचित वन भूमि पर जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड द्वारा गैर-वानिकी कार्य करने की शिकायत समिति से की थी। सीईसी के सदस्य सचिव एमके जीवराजका ने 8 सितंबर, 2008 को उत्तर प्रदेश वन विभाग के प्रधान मुख्य वन संरक्षक को पत्र (फाइल संख्या-1-26/सीईसी/एससी/2008-पीटी28) लिखकर स्पष्टीकरण मांगा। साथ ही उन्होंने भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-4 के तहत अधिसूचित वन भूमि का उपयोग खनन अथवा अन्य किसी प्रकार के गैर-वानिकी कार्य के लिए नहीं होने देने का निर्देश दिया। इसके अलावा सीईसी ने इस मामले की जांच के लिए एक पत्र केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के क्षेत्रीय कार्यालय (मध्य क्षेत्र), लखनऊ के मुख्य वन संरक्षक आजम जैदी को लिखा। आजम जैदी ने मामले की जांच वन संरक्षक वाईके सिंह चौहान को सौंपी। वाईके सिंह चौहान ने साल 2009 में 21 और 22 जनवरी को इलाके का निरीक्षण किया। जांच के दौरान उन्होंने पाया कि जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड द्वारा भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-4 के तहत अधिसूचित वन भूमि पर अवैध निर्माण हो रहा है। उन्होंने 3 फरवरी, 2009 को पत्र लिखकर सीईसी को अपनी जांच से अवगत कराया। 

अगर वाईके सिंह के दावों पर गौर करें तो जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड के पक्ष में कोटा, पड़रछ, पनारी, मारकुंडी की 820.06 हेक्टयर और मारकुंडी गांव स्थित कैमूर वन्यजीव विहार की 253.176 हेक्टेयर भूमि भा.व.अ. की धारा-4 से अलग की गई है जो कुल 1083.231 हेक्टेयर है। इससे उसे कुल 409.09 करोड़ रुपये का फायदा हुआ है। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अनुसार, जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड को एनपीवी के रूप में 192.83 करोड़ रुपये, गैर-वन भूमि के रूप में 133.78 करोड़ रुपये, वनरोपण क्षतिपूर्ति (कंपेनसेटरी एफॉरेस्टेशन) के रूप में 10.84 करोड़ रुपये, दंडनीय वनरोपण क्षतिपूर्ति (पीनल कंपेनसेटरी एफॉरेस्टेशन) के रूप में 21.64 करोड़ रुपये, आदिवासी एवं वन्यजीव विकास के लिए 50 करोड़ रुपये सरकार को देने पड़ते। अगर राबर्ट्सगंज (सोनभद्र) के तहसीलदार की ओर से 13 फरवरी, 2009 को सोनभद्र के डाला (कोटा) स्थित सोनांचल जन कल्याण संस्था के सचिव अजीत कुमार को लिखे पत्र पर गौर करें तो जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड को भा.व.अ. की धारा-4 से निष्कासित भूमि का अधिकांश हिस्सा हस्तांतरित कर दिया गया है और वह उसके कब्जे में है। 
गैर-सरकारी संगठन, वनवासी पंचायत, सोनभद्र के सदस्य, रमेश कुमार, अपना दल के सोनभद्र अध्यक्ष चौधरी यशवंत सिंह, चंदौली जनपद के नौगढ़ विकासखंड के शमशेरपुर गांव निवासी बलराम सिंह उर्फ गोविंद सिंह, जन संघर्ष मोर्चा के प्रवक्ता दिनकर कपूर, पीयूसीएल के विकास शाक्य, वनाधिकार कानून पर काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता रोमा समेत स्थानीय बाशिंदों की लिखित शिकायतों पर विश्वास करें तो जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड ने जिला प्रशासन के नुमाइंदों की सहायता से यूपीएससीसीएल की संपत्तियों के अधिग्रहण के बहाने ग्राम सभा, संरक्षित वन क्षेत्र और कैमूर वन्य जीव विहार की करीब 24,000 एकड़ भूमि पर कब्जा कर लिया है।...जारी

(यह रिपोर्ट मासिक पत्रिका "ऑल राइट्स" के फरवरी 2013 अंक में प्रकाशित हो चुकी है)

उप्र सरकार ने जेपी समूह को मुफ्त में दे दी 4283 बीघा वन भूमि

“द पब्लिक लीडर” के पास उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड ने 2007 की शुरुआत में वन बंदोबस्त अधिकारी अधिकारी, ओबरा (सोनभद्र) के पास कोटा, पड़रछ, पनारी, मकरीबारी, डाला, बारी और मारकुंडी में स्थित खनन पट्टों के तहत आने वाली और भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-4 के तहत अधिसूचित भूमि को निकालने के लिए विभिन्न केस संख्या-354/2007 दाखिल किया, जबकि उच्चतम न्यायालय के आदेशों के तहत इन वन ग्रामों की बंदोबस्त प्रक्रिया करीब एक दशक पहले ही पूर्ण हो चुकी थी। तत्कालीन वन बंदोबस्त अधिकारी ने 5 फरवरी, 2007 को केस संख्या-354/2007 यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उच्चतम न्यायालय के आदेशों के मुताबिक विवादित वन वंदोबस्त अधिकारी और अपीलीय अधिकारी के रूप में नियुक्त अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने विवादित भूमि को संरक्षित वन भूमि दर्ज किया है। इसलिए यह मामला इस न्यायालय के अधिकार के बाहर है। 

जय प्रकाश एसोसिएट्स ने इस फैसले के खिलाफ सोनभद्र के जिला न्यायाधीश के यहां अपील की, जिन्होंने 29 मई, 2007 को इस मामले को पुनः वन बंदोबस्त अधिकारी, ओबरा (सोनभद्र) के पास भेज दिया और कंपनी के दावे को स्वीकार करने योग्य बताया। इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार ने भी जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड का ही पक्ष लिया, जबकि उत्तर प्रदेश वन विभाग ने कंपनी के दावे का पुरजोर विरोध किया था। उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से सोनभद्र के तत्कालीन जिलाधिकारी राजेश्वर प्रसाद सिंह ने वन बंदोबस्त अधिकारी, ओबरा के सामने 5 फरवरी, 2007 को लिखित अपने बयान में जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड के पक्ष को सही ठहराया है।

पत्र में उन्होंने साफ लिखा है कि विवादित भूखण्ड कभी भी वन भूमि नहीं रही। उन्होंने यह भी लिखा है कि विवादित भूखण्ड पहाड़ी के रूप में है, जिसका खनन कार्य हेतु पट्टा समय-समय पर किया जाता रहा है। इसके बावजूद अनियमित रूप से उक्त भूखण्ड को भी भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 में शामिल कर लिया गया है। 
गौरतलब है कि राज्य सरकार के दस्तावेजों के अनुसार यूपीएससीसीएल और यूपीएसएमडीसी के खनन पट्टे की 1399.583 हेक्टेयर भूमि भावअ की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी, जिसे उन्हें एक निश्चित समय के लिए पट्टे पर दिया गया था। उच्चतम न्यायालय के आदेशों के अनुसार, इनमें से करीब 1094 हेक्टेयर वन भूमि पर खनन कार्य के लिए केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की ओर से अनापत्ति प्रमाण-पत्र लेना आवश्यक है। ऐसा नहीं की वजह से यूपीएससीसीएल और यूपीएसएमडीसी के पक्ष में खनन पट्टों का नवीनीकरण नहीं हो पाया था और मामला अभी लंबित है। इसके बावजूद जिलाधिकारी राजेश्वर प्रसाद सिंह ने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर राज्य सरकार के पक्ष को वन बंदोबस्त अधिकारी, ओबरा के सामने रखा, जबकि उन्होंने कानून के प्रावधानों के तहत सक्षम अधिकारी से अनुमति नहीं ली थी।

दस्तावेजों पर गौर करें तो वन बंदोबस्त अधिकारी, ओबरा, वीके श्रीवास्तव ने जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड की ओर से भारतीय वन अधिनियम की धारा-9 और 11 के तहत दाखिल सात मामलों भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 के तहत अधिसूचित 1083.231 हेक्टेयर भूमि कंपनी के पक्ष में निकाल दी।वीके श्रीवास्तव ने 19 सितंबर, 2007 को केस संख्या-180/353 (कोटा) में 27.824 हेक्टेयर और केस संख्या-181/354(कोटा) में 210.056 हेक्टेयर, 28 नवंबर, 2007 को केस संख्या 386/388(कोटा) में 18.268 हेक्टेयर, 5 दिसंबर, 2007 को केस संख्या-395/397 (कोटा-पड़रछ) में 273.018 हेक्टेयर और केस संख्या-396/398(पनारी-निंगा) में 70.045 हेक्टेयर, 7 जनवरी, 2008 को केस संख्या-399/401 (मकरीबारी) में 230.844 हेक्टेयर और 25 जनवरी, 2008 को केस संख्या-398/400 (मारकुंडी-गुरमा) में 253.176 हेक्टेयर भूमि भावअ की धारा-4 से अलग कर दी। इन सात मामलों में पांच मामलों की पुष्टि सोनभद्र के तत्कालीन जिला न्यायाधीश ने भी अपने आदेशों में की है। केस संख्या-398/400 (मारकुंडी-गुरमा) में निष्कासित 253.176 हेक्टेयर भूमि में कैमूर वन्यजीव विहार की भूमि भी शामिल है।

वन बंदोबस्त अधिकारी वीके श्रीवास्तव ने 1987 में भावअ. की धारा-20 के तहत अधिसूचित 399.51 हेक्टेयर संरक्षित वन क्षेत्र में से 230.844 हेक्टेयर वन भूमि को भी जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड के पक्ष में गैरकानूनी ढंग से निकाल दिया है, जिसकी पुष्टि उच्चतम न्यायालय के आदेश के तहत अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने भी नहीं की LrLथी। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की जांच रिपोर्ट के अंशों पर गौर करें तो वन बंदोबस्त अधिकारी वीके श्रीवास्तव उपरोक्त मामलों की सुनवाई नहीं कर सकते थे। वे केवल उन 12 गांवों के मामले की सुनवाई कर सकते थे, जिसके लिए राज्य सरकार ने 21 जुलाई, 1995 को जारी आदेश में सहायक अभिलेख अधिकारी शिव बक्श लाल को विशेष वन बंदोबस्त अधिकारी, सोनभद्र नियुक्त किया था। हालांकि इसके लिए भी शासन की ओर से उनकी नियुक्ति होनी चाहिए।...जारी

(यह रिपोर्ट मासिक पत्रिका "ऑल राइट्स" के फरवरी 2013 अंक में प्रकाशित हो चुकी है)

उत्तर प्रदेश सरकार ने मजदूरों के सीने पर चलवाई थी गोलियां

“द पब्लिक लीडर” के पास मौजूद दस्तावेजों के अनुसार, उच्चतम न्यायालय के उपरोक्त आदेश के अनुपालन में उत्तर प्रदेश सरकार ने 17 फरवरी 1995 को कार्यालय ज्ञाप संख्या-52/(49)/90-244/90-रा-14 निर्गत कर जिलाधिकारी/अभिलेख अधिकारी, सोनभद्र को 12 ग्रामों में भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 के तहत अधिसूचित 26,947 एकड़ भूमि की सर्वे क्रियाओं के संपादन के लिए विशेष अधिकारी नामित किया। इस आदेश में आंशिक संशोधन करते हुए उत्तर प्रदेश शासन के राजस्व अनुभाग-14 के विशेष सचिव डॉ, सूर्य प्रसाद ने 21 जुलाई, 1995 को ऑफिस मेमोरंडम संख्या-52/(49)/90-244/90-रा-14 के माध्यम से सोनभद्र के सहायक अभिलेख अधिकारी शिव बक्श लाल को उपरोक्त 12 ग्रामों में विवादित भूमि के सर्वे क्रियाओं के संपादन के लिए विशेष अधिकारी नामित कर दिया। इससे यह साफ हो जाता है कि उच्चतम न्यायालय के आदेशों के तहत महेश्वर प्रसाद कमेटी की सिफारिशों में शामिल 433 गांवों में से 421 गांवों की वन बंदोबस्त प्रक्रिया समाप्त हो चुकी थी। सहायक अभिलेख अधिकारी शिव बक्श लाल बतौर विशेष वन बंदोबस्त अधिकारी केवल 12 ग्रामों से जुड़ी हुई आपत्तियों के मामले में ही सुनवाई कर सकते थे। 

उच्चतम न्यायालय में सीईसी के सदस्य सचिव एमके जीवराजका की ओर से दाखिल संस्तुतियों पर गौर करें तो उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से उपलब्ध कराए गए दस्तावेजों के अनुसार यूपी एस सी सी एल के 2168.828 हेक्टेयर भूमि पर स्थित खनिज पट्टों के अलावा भलुआ, जुलगुल और बारी गांवों की 1698.008 हेक्टयर भूमि पर उत्तर प्रदेश राज्य खनिज विकास निगम (यूपीएसएमडीसी) के भी खनन पट्टे थे, जिसमें 396.017 हेक्टेयर भूमि भावअ की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी। इस तरह कोटा (कजरहट), गुरमा (मारकुंडी-मकरीबारी), पनारी (निंघा), भलुआ, जुलगुल और बारी गांवों की 3866.836 हेक्टेयर भूमि पर यूपीएससीसीएल और यूपीएसएमडीसी के खनन पट्टे थे, जिसमें से 1399.583 हेक्टेयर भूमि भावअ की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी। कैमूर सर्वे एजेंसी की वन बंदोबस्त प्रक्रिया के दौरान भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 के तहत अधिसूचित और खनन लीज में आने वाली 1399.583 हेक्टेयर भूमि में से करीब 237 हेक्टेयर भूमि संरक्षित वन क्षेत्र से निकाल दी गई थी। शेष संरक्षित वन क्षेत्र में से करीब 68 हेक्टेयर वन भूमि भारतीय वन अधिनियम की धारा-20 के तहत अधिसूचित कर दी गई थी। 1094.583 हेक्टेयर वन भूमि के लिए भी भा.व.अ. की धारा-20 के तहत अधिसूचना जारी करने के लिए प्रक्रिया शुरू की गई थी लेकिन मामला उच्चतम न्यायालय में लंबित होने के कारण ऐसा नहीं हो पाया।

उधर, यूपीएससीसीएल की हालत खस्ताहाल हो गई। राज्य सरकार के नुमाइंदों की लापरवाही के कारण करोड़ों रुपये का फायदा देने वाली डाला, चुर्क और चुनार स्थित सीमेंट फैक्ट्रियां करोड़ों रुपये के घाटे में चली गईं। राज्य सरकार ने उन्हें बंद करने और कर्मचारियों को बेरोजगार करने की कवायद शुरू कर दी, जिसके विरोध में मजदूर संगठनों ने जमकर प्रदर्शन किया। जवाब में राज्य पुलिस के नुमाइंदों ने उनपर गोलियां दागीं और नौ मजदूरों मारे गए। मजदूर संगठनों ने उनकी याद में डाला स्थित यूपीएससीसीएल फैक्ट्री के सामने शहीद स्मारक बनवाया जो आज भी मजदूरों के ऊपर राज्य सरकार के जुल्मों की दास्तां को बयां करता है। 

यूपीएससीसीएल 1996 में 380 करोड़ रुपये से ज्यादा के घाटे में चली गई। मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंच गया। औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड (बीआईएफआर) ने 2 जुलाई, 1997 को ऑफिसियल लिक्विडेटर के जरिए यूपीएससीसीएल को बेचने की राय दी जो उच्च न्यायालय, इलाहाबाद में 17 जुलाई, 1997 को कंपनी आवेदन संख्या-4/1997 के रूप में दर्ज हुआ। सभी पक्षों को सुनने के बाद उच्च न्यायालय ने 8 दिसंबर, 1999 को कंपनी को बंद करने का आदेश दिया और कंपनी के लिक्विडेटर की नियुक्ति की। उच्च न्यायालय के इस आदेश से करीब 6000 कर्मचारी बेरोजगार हो गए।

कई असफल कदमों के बाद 8 अगस्त, 2005 को यूपीएससीसीएल की संपत्तियों की बिक्री के लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन प्रकाशित हुआ। चार कंपनियों मेसर्स जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड (जेएएल), मेसर्स डालमिया सीमेंट (भारत) लिमिटेड, मेसर्स लफार्ज (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड और मेसर्स ग्रासिम इंडस्ट्रीज लिमिडट की निविदाओं को 4 अक्टूबर, 2005 को खोला गया। जय प्रकाश एसोसिट्स लिमिटेड (जेएएल) की 459 करोड़ रुपये की निविदा सबसे अधिक थी। दूसरे स्थान पर मेसर्स डालमिया सीमेंट (भारत) लिमिटेड की 376 करोड़ रुपये और तीसरे स्थान पर मेसर्स लफार्ज (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड की 271 करोड़ रुपये की निविदाएं थीं। जेएएल की 359 करोड़ रुपये की निविदा को उच्च न्यायालय, इलाहाबाद ने 30 जनवरी, 2006 को स्वीकृति प्रदान की। जेएएल ने निविदा की 25 फीसदी धनराशि जमा की और शेष धनराशि को तीन किस्तों में भुगतान करने की पेशकश की। धनराशि का भुगतान होने पर उच्च न्यायालय, इलाहाबाद ने 11 अक्टूबर, 2006 को जेएएल के पक्ष में यूपीएससीसीएल की बिक्री की पुष्टि कर दी। इसके बाद उच्च न्यायालय, इलाहाबाद के आदेश की आड़ में जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड और राज्य सरकार के नुमाइंदों का खेल शुरू हो गया।...जारी 

 (यह रिपोर्ट मासिक पत्रिका "ऑल राइट्स" के फरवरी 2013 अंक में प्रकाशित हो चुकी है)

सुप्रीम कोर्ट के आदेश बाद भी नहीं मिला आदिवासियों का हक 

उच्चतम न्यायालय में उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व विभाग के तत्कालीन संयुक्त सचिव बीके सिंह यादव द्वारा पेश दस्तावेजों के अनुसार राज्य सरकार द्वारा गठित महेश्वर प्रसाद कमेटी ने तत्कालीन मिर्जापुर जनपद के कैमूर क्षेत्र के दक्षिण में 433 गांवों को इस मामले से जुड़ा हुआ पाया था, जिनमें शीर्ष अदालत के आदेशों के अनुसार वन बंदोबस्त की प्रक्रिया पूर्ण की जानी थी। इनमें से 299 गांव दुद्धी तहसील में थे जबकि शेष 134 गांव राबर्ट्सगंज तहसील में थे। 

विवादित इलाका 9 लाख 23 हजार 293 एकड़ का था, जिसमें से 58 हजार 937.42 एकड़ भूमि भारतीय वन अधिनियम की धारा-20 के तहत संरक्षित वन घोषित हो चुकी थी। शेष 7 लाख 89 हजार 86 एकड़ भूमि भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी। इसी इलाके के खम्हरिया, परबतवा, झीलोटोला, डोहडर और जरहा गांवों में नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन (एनटीपीसी) की रिहंद सुपर थर्मल पॉवर प्लांट के राख निष्पादन के लिए जरूरी भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया भी उच्चतम न्यायालय के आदेशों के तहत आ गई थी। इस मामले में शीर्ष अदालत ने 8 फरवरी, 1989 को साफ निर्देश दिया कि भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-4 के तहत अधिसूचित भूमि वन संरक्षण अधिनियम-1980 की धारा-2 के तहत आती है। इसलिए एनटीपीसी के लिए आवश्यक है कि वह उक्त अधिनियम के प्रावधानों के तहत सक्षम अधिकारी से अनापत्ति प्रमाण-पत्र हासिल करे।

उच्चतम न्यायालय के आदेशों के तहत विशेष वन बंदोबस्त अधिकारियों ने स्थानीय लोगों के दावे प्राप्त किये और उन दावों की जांच की। उसके बाद उन्होंने सभी आवश्यक दस्तावेज अपने इलाके के अपीलीय अधिकारी के रूप में तैनात अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों के सामने रखे। उन्होंने प्राप्त दावों और आवश्यक दस्तावेजों की जांच की और अपना फैसला सुनाया। समय-समय पर राज्य सरकार ने अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों के आदेशों के अनुरूप वन बंदोबस्त प्रक्रिया पूर्ण होने की अधिसूचना जारी की। अगर उच्चतम न्यायालय के 16 फरवरी, 1993 के आदेश पर गौर करें तो न्यायमूर्ति बीएल लूम्बा ने अपनी सातवीं रिपोर्ट में 17 वन गांवों में जारी वन बंदोबस्त प्रक्रिया पर सवाल खड़े किए थे, जिनमें छतरपुर, नगवां, गोइठा, गुलालहरिया, जामपानी, कुदरी, धूमा, घघरी, सुखरा, किरबिल, सुपाचुआं, सांगोबांध, नौडीहा, जरहा, मधुवन, बैलहत्थी और करहिया गांव शामिल थे।

इस मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेशों पर गौर करें तो साल 1994 में कैमूर सर्वे की वन बंदोबस्त प्रक्रिया के तहत आने वाले 433 गांवों में से 421 गांवों की वन बंदोबस्त प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी। इन गांवों में कोटा और ओबरा(पनारी) के वे गांव भी शामिल थे, जिनमें यूपीएससीसीएल और उत्तर प्रदेश राज्य खनिज विकास निगम (यूपीएसएमडीसी) की खनन वे लीजें स्थित थीं जो जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड को हस्तांतरित की गई हैं। शेष 12 गांवों में स्थित भूमि की बंदोबस्त प्रक्रिया जारी थी।
उच्चतम न्यायालय ने 18 जुलाई, 1994 के आदेश में कहा था, “13 मई, 1994 को इस न्यायालय के आदेश के अनुसार केवल एक अतिरिक्त जिला न्यायाधीश काम कर रहे हैं। हम निर्देश देते हैं कि वे 30 सितंबर, 1994 तक काम करते रहेंगे और उस तिथि तक वे सभी अपीलों और याचिकाओं की सुनवाई संपन्न कर लेंगे। हम समझते हैं कि कैमूर सर्वे एजेंसी की शेष इकाई को बनाए रखने की कोई वजह नहीं है। हम 1 अगस्त, 1994 से उन इकाइयों को बंद करने का निर्देश देते हैं।...न्यायमूर्ति लूम्बा ने अपनी 14वीं रिपोर्ट में उद्धत किया है कि भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 के तहत अधिसूचित 12 गांवों की लगभग 26,947 एकड़ भूमि उत्तर प्रदेश भू-राजस्व अधिनियम की धारा-54 के तहत है। हम उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व सचिव को निर्देश देते हैं कि वह ऐसे विशेष अधिकारियों की नियुक्ति करे जो 20 नवंबर, 1986 के आदेश के आलोक में इस विवादित भूमि के विवाद का समाधान करे।...हम राजस्व सचिव को यह भी निर्देश देते हैं कि वह विभिन्न अपीलों में अनुभवी अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों के निर्णयों और विचारों को लागू करें।...हम इस केस की प्रक्रिया को बंद करते हैं। हालांकि हम विभिन्न पक्षों को यह अधिकार देते हैं कि जब भी आवश्यक हो, वे जरूरी दिशा-निर्देशों के लिए इस अदालत के पास आ सकते हैं।”......जारी
(यह रिपोर्ट मासिक पत्रिका "ऑल राइट्स" के फरवरी, 2013 के अंक में प्रकाशित हो चुकी है।)

देश आजाद हुआ पर आदिवासी नहीं
उन्नीस सौ सैतालिस में 15 अगस्त को देश अंग्रेजों की गुलामी से भले ही आजाद हो गया हो लेकिन जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के लिए गुलामी का दौर उसी दिन से शुरू हो गया था। उत्तर प्रदेश के जंगली इलाकों में आजाद आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के लिए भी ऐसा ही था।
"द पब्लिक लीडर" के पास मौजूद दस्तावेजों के अनुसार उत्तर प्रदेश में वर्ष-1950 में जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार कानून अस्तित्व में आया जो कैमूर वन क्षेत्र के दक्षिण में स्थित मिर्जापुर (अब सोनभद्र) जिले की दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसीलों में दो हिस्सों में लागू हुआ। कुछ हिस्सों में यह कानून 30 जून, 1953 को लागू हुआ तो कुछ हिस्सों में 1 जुलाई, 1954 को। हालांकि राज्य सरकार ने आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों वाले इलाके यानी वन क्षेत्रों को 1952 में ही अपने कब्जे में ले लिया था। इसमें वन ग्राम, पहाड़, नदी, तालाब आदि शामिल थे। राज्य सरकार ने 11 अक्टूबर, 1952 को अधिसूचना जारी कर राज्य की समस्त जंगल भूमि को प्रबंधन के लिए उत्तर प्रदेश वन विभाग को सौंप दिया, जिससे अंग्रेजों के जमाने में जंगलों में आजाद जीवन व्यतीत करने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों की जिंदगी पर पहरा लग गया। इसकी जद में दुद्धी क्राउन स्टेट का इलाका भी आ गया, जिसमें तत्कालीन मिर्जापुर जिले की दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसीलों की लाखों एकड़ वन भूमि और इस पर आबाद सैंकड़ों वन ग्राम शामिल थे। इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इस इलाके में मौजूद खनिज संपदा को ध्यान में रखते हुए चुर्क और डाला सीमेंट फैक्ट्रियों की स्थापना की। हालांकि यह यहां के मूल बाशिंदों के लिए बहुत ज्यादा लाभकारी साबित नहीं हुआ। 1 जनवरी, 1967 को राज्य की कांग्रेस सरकार ने दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसील की सात लाख नवासी हजार एकड़ वन भूमि भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 के तहत अधिसूचित कर दी। इससे इस इलाके में आबाद सैकड़ों वन ग्रामों के हजारों आदिवासियों का जमीनी अधिकार छीन गया और लोग अपने हक की मांग को लेकर मुखर होने लगे। अक्सर वन विभाग के अधिकारियों से अनका विवाद होता रहता। 

दस्तावेजों पर गौर करें तो उत्तर प्रदेश सरकार ने 1 अप्रैल, 1972 को उत्तर प्रदेश राज्य सीमेंट निगम लिमिटेड (यूपीएससीसीएल) नामक कंपनी का निर्माण किया और हस्तांतरण विलेख (ट्रांसफर डीड) के माध्यम से चुर्क और डाला सीमेंट फैक्ट्रियों की समस्त संपत्ती उसे हस्तांतरित कर दी। साथ ही राज्य सरकार ने 24 अक्टूबर, 1973 को यूपीएससीसीएल को कोटा ग्राम की 815.828 हेक्टयर भूमि 20 वर्षों के लिए खनन पट्टे पर दे दिया, जिसमें 380.635 हेक्टयर भूमि भारतीय वन अधिनियम (भा.व.अ.) की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी। यह खनन पट्टा 1 मई, 1976 से 30 अप्रैल, 1996 तक दिया गया था। 19 जनवरी, 1973 को राज्य सरकार ने यूपीएससीसीएल को दूसरा खनन पट्टा बीस वर्षों के लिए बिल्ली मारकुंडी और मकरीबारी ग्राम की 1266 हेक्टेयर भूमि पर आबंटित किया, जिसमें 552.603 हेक्टेयर भूमि भा.व.अ. की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी। इसकी अवधि 27 सितंबर, 1978 से 26 सितंबर, 1998 तक थी। इसके अलावा सरकार ने 24 अक्टूबर, 1974 को पनारी (निंघा) ग्राम की 87 हेक्टेयर भूमि पर 10 वर्षों के लिए खनन पट्टा कंपनी को आबंचित किया जिसमें 70.328 हेक्टेयर भूमि भा.व.अ. की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी। इसकी अवधि 19 अप्रैल, 1982 से 18 अप्रैल, 1992 तक थी। इस तरह राज्य सरकार ने यूपीएससीसीएल को उपरोक्त गांवों में कुल 2168.828 हेक्टेयर भूमि खनन पट्टे के रूप में आवंटित की, जिसमें 1003.566 हेक्टेयर भूमि भा.व.अ. की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी। 

जैसे-जैसे राज्य सरकार इस प्रकार की सुधारात्मक कदमों को उठा रही थी, वैसे-वैसे इन इलाकों के आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों की मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। 25 अक्टूबर, 1980 को वन संरक्षण अधिनियम-1980 प्रभाव में आया, जिसके बाद भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-4 और धारा-20 के तहत अधिसूचित वन भूमि पर खनन अथवा अन्य गैर-वानिकी कार्य के लिए केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंतालय से अनुमति लेना अनिवार्य हो गया। भारतीय वन अधिनियम और वन संरक्षण अधिनियम के लागू होने से तत्कालीन मिर्जापुर के दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसीलों के वन क्षेत्रों में निवास करने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों की मुसीबतें और बढ़ गईं। वन विभाग के नुमाइंदे वन ग्रामों में रहने वाले लोगों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज कर उन्हें उनकी पुस्तैनी जमीनों से बेदखल करने लगे। इलाके के मूल बाशिंदों की समस्याओं से चिंतित म्योरपुर स्थित बनवासी सेवा आश्रम के प्रेम भाई ने 1982 में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर मामले में हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई। उच्चतम न्यायालय ने बनवासी सेवा आश्रम के पत्र को जनहित याचिका के रूप में स्वीकार किया और मामले पर सुनवाई शुरू की। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर राज्य सरकार ने गठित महेश्वर प्रसाद कमेटी का गठन किया। कमेटी ने विवादित क्षेत्र पर अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार और उच्चतम न्यायालय को सौंपी। 

इस मामले में विभिन्न पक्षों को सुनने के बाद उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती की पीठ ने 20 नवंबर, 1986 को ऐतिहासिक फैसला दिया, जिसके आधार पर मिर्जापुर जनपद के कैमूर वन क्षेत्र के दक्षिण में स्थित दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसीलों की वन भूमि का सर्वे और उसकी बंदोबस्त प्रक्रिया शुरू हुई। उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुसार, भारतीय वन अधिनियम की धारा-20 के तहत अधिसूचित वन भूमि को जनहित याचिका का अंश नहीं बनाया गया था, जिसके कारण इससे जुड़े मामलों पर कोई सुनवाई नहीं होनी थी। शीर्ष अदालत ने वन अधिकारियों को आदेश दिया था कि वे 1 दिसंबर, 1986 से छह हफ्तों के भीतर भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 के तहत अधिसूचित भूमि की पहचान कर उसका सीमांकन करें। साथ ही शीर्ष अदालत ने यह भी आदेश दिया कि वे अदालत के दिशा-निर्देशों को बड़े पैमाने पर प्रचारित-प्रसारित करें और 15 जनवरी, 1987 से तीन महीनों के अंदर भारतीय वन अधिनियम की धारा-6 (सी) के तहत स्थानीय लोगों के दावे स्वीकार करें। इसके अलावा न्यायालय ने 31 दिसंबर, 1986 तक पर्याप्त संख्या में भूलेख अधिकारियों की नियुक्ति करने का आदेश राज्य सरकार को दिया। शीर्ष अदालत ने यह भी आदेश दिया राज्य सरकार दुद्धी तहसील के दुद्धी, म्योरपुर, किरबिल और राबर्ट्सगंज तहसील के राबर्ट्सगंज तथा तेलगुड़वा स्थानों पर पांच अनुभवी अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति करे जो उच्च न्यायालय इलाहाबाद की ओर से मुहैया कराए जाएंगे। 

राज्य सरकार उनकी सहायता के लिए पर्याप्त संख्या में उन्हें सहायक और कर्मचारी मुहैया कराएगी। सभी अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों को भारतीय अधिनियम की धारा-17 के तहत प्रदत्त अपीलीय अधिकारी का अधिकार होगा। उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश में यह भी लिखा कि वन बंदोबस्त अधिकारी प्राप्त दावों की जांच करेंगे और उससे संबंधित आवश्यक दस्तावेज इलाके के अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों के सामने रखेंगे। अतिरिक्त जिला न्यायाधीश इन दस्तावेजों की पड़ताल अपीलीय अधिकारी के रूप में करेंगे और उनके द्वारा दिया गया आदेश भारतीय वन अधिनियम के प्रावधानों के तहत अपेक्षित आदेश होगा। यदि अपीलीय अधिकारी प्राप्त दावे को स्वीकृति प्रदान कर देता है तो राज्य सरकार उस निर्णय का सम्मान करेगी और उसे लागू करेगी।.......जारी 

( यह रिपोर्ट मासिक पत्रिका "ऑल राइट्स" के फरवरी अंक में प्रकाशित हो चुकी है।)
(देश में हर तरफ प्राकृतिक संपदा की लूट मची है। कोई जमीन भेद रहा है तो कोई पाताल। आकाश की धूप और हवा भी अछूती नहीं है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, ओडिशा, गोवा आदि राज्यों के विभिन्न इलाकों में जिस तरह से कोयला, लौह अयस्क, डोलो स्टोन, लाइम स्टोन (चूना पत्थर), सैंड स्टोन, बालू, मोरम आदि खनिज पदार्थों के अवैध दोहन का मामला बीते सालों में सामने आया है, उससे लोकतंत्र के विभिन्न स्तंभों की कार्यशैली पर सवाल खड़े हो गए हैं। इससे ना केवल भारतीय वन अधिनियम, वन संरक्षण अधिनयम, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, भारतीय खान ब्यूरो आदि के मानकों का उल्लंघन हुआ है, बल्कि इसने आम आदमी के अधिकारों के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के आदेशों और संविधान के मूल्यों पर भी हमला बोला है। 2जी स्पेक्ट्रम आबंटन, कोयला ब्लॉक आबंटन और केजी बेसीन मामले ने तो देश के शीर्ष नेतृत्व की कार्यशैली पर ही सवाल खड़ा कर दिए। इन हालात में आम आदमी के लिए ईमानदारी से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना किसी जंग जीतने के बराबर है। एक तरफ वह जहां देश के विभिन्न कानूनों के अनुपालन में तिल-तिल मर रहा है, वहीं दूसरी ओर पूंजीपति और उद्योगघराने कानूनों की धज्जियां उड़ाते जा रहे हैं। उनके इस कार्य में सत्ता के गलियारों में बैंठे कुछ सियासतदां और भ्रष्ट नौकरशाह हाथ बंटाते हैं। यहां तक कि वे कानून के विभिन्न प्रावधानों के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के आदेशों और संवैधानिक मूल्यों की अह्वेलना करने से भी बाज नहीं आते। उत्तर प्रदेश में एक उद्योगघराने और सत्ता में काबिज नुमाइंदों की ऐसी ही सांठगांठ की पोल खोलती यह रिपोर्टः)
देश में वनाधिकार कानून-2006 लागू है। फिर भी लाखों आदिवासी एवं वन निवासी भूमि के अधिकार से वंचित हैं। वे सरकारी नुमाइंदों के दरवाजे खटखटा रहे हैं लेकिन उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। वे उन्हें भारतीय वन अधिनियम-1927 और वन संरक्षण अधिनयम-1980 सरीखे कानूनों की अनेक धाराओं में फंसाकर जेलों की कालकोठरी में ठूंस रहे हैं। दूसरी ओर, केंद्र और राज्य की सरकारें पूंजीपतियों और उद्योगघरानों को जंगल और ग्रामसभा की हजारों एकड़ जमीनें खैरात में बांट रही हैं। उत्तर प्रदेश में शासन करने वाली राजनीतिक पार्टियों की सरकारों ने तो एक निजी उद्योगघराने को जंगल और कैमूर वन्यजीव विहार की भूमि देने के लिए भारतीय वन अधिनयम, वन संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के आदेशों को भी नजरअंदाज कर दिया। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) और विंध्याचल मंडल के तत्कालीन आयुक्त सत्यजीत ठाकुर की ओर से गठित टीम की अलग-अलग जांच रिपोर्टों के दस्तावेजों पर गौर करें तो उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन वन बंदोबस्त अधिकारी वीके श्रीवास्तव (अब सहायक अभिलेख अधिकारी, मिर्जापुर) ने वर्ष 2007-08 में जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड के पक्ष में जंगल और कैमूर वन्यजीव विहार की 1083.231 हेक्टेयर (करीब 4283.238 बीघा) भूमि उच्चतम न्यायालय के आदेशों के विपरीत निकाल दी। राज्य की पूर्ववर्ती बहुजन पार्टी की सरकार ने इस पर मुहर लगाते हुए अधिसूचना भी जारी कर दिया और अपनी कारगुजारियों को अमलीजामा पहनाने के लिए उच्चतम न्यायालय में अपील भी दायर की है। उच्चतम न्यायालय में केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के क्षेत्रीय कार्यालय (मध्य क्षेत्र), लखनऊ के वन संरक्षक वाईके सिंह चौहान की ओर से दाखिल हलफनामे पर गौर करें तो इससे सरकार को एनपीवी (नेट प्रजेंट वैल्यू) और अन्य मदों के रूप में करीब चार सौ नौ करोड़ नौ लाख रुपये की हानि हुई है। अगर स्थानीय लोगों के लिखित आरोपों पर विश्वास करें तो उत्तर प्रदेश सरकार के नुमाइंदों ने जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड के पक्ष में कोटा, पड़रछ, पनारी, मकरीबारी और मारकुंडी वन क्षेत्र की 24,000 हेक्टेयर भूमि निकाल दी है और वह इस पर गैरकानूनी ढंग से अवैध निर्माण और खनन कार्य कर रहा है। 

वास्तव में यह पूरा मामला उत्तर प्रदेश राज्य सीमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (यूपीएससीसीएल) के अधीन चुर्क, डाला और चुनार सीमेंट फैक्ट्रियों की बिक्री और उसकी संपत्तियों के अधिग्रहण से जुड़ा हुआ है जो मिर्जापुर-सोनभद्र के जंगली और पहाड़ी इलाकों में स्थित हैं। नब्बे के दशक में कंपनी को करोड़ों रुपये का घाटा हुआ और मामला उच्च न्यायालय, इलाहाबाद में पहुंच गया। उच्च न्यायालय के आदेश के आदेश पर 8 दिसंबर, 1999 को तीनों फैक्ट्रियों को बंद कर दिया गया और ऑफिसियल लिक्विडेटर की सहायता से इनकी संपत्तियों को वर्ष-2006 में जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड को चार सौ उनसठ करोड़ रुपये में बेच दिया गया। यूपीएससीसीएल की संपत्तियों की वैश्विक निविदा में जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड ने चार सौ उनसठ करोड़ रुपये की सबसे बड़ी बोली लगाई थी। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के वन संरक्षक (मध्य क्षेत्र) वाईके सिंह चौहान, सीईसी के सदस्य सचिव एमके जीवराजका, विंध्याचल मंडल के तत्कालीन आयुक्त सत्यजीत ठाकुर के उपरोक्त दावों और स्थानीय लोगों आरोपों को समझने के लिए मिर्जापुर (अब सोनभद्र) जिले की दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसीलों में स्थित वन क्षेत्रों के संबंध में भारतीय वन अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों की जारी अधिसूचना, उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी विभिन्न आदेशों और संपन्न वन बंदोबस्त प्रक्रिया के संक्षिप्त इतिहास को समझने की जरूरत है।..........जारी

(यह रिपोर्ट मासिक पत्रिका "ऑल राइट्स" के फरवरी 2013 अंक में प्रकाशित हो चुकी है)


लेख स्त्रोत:-
द पब्लिक लीडर मीडिया ग्रुप, 
राबर्ट्सगंजसोनभद्रउत्तर प्रदेश
ई-मेल:thepublicleader@gmail.com, 

मोबाइल-09910410365

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें