सोमवार, 1 सितंबर 2014

आज भी नहीं मिल रही आदिवासियों को पहचान

written by Shiv Das
बाबू, हमहन आदिवासी हइला. पास के जंगलवा में लकड़ी बिनके आउर मज़दूरी कइके अपन पेट पालिला जा. हमहन के  बाउ-माई, दादा-दादी भी इहै काम करत रहलैं. लेकिन इ जवन सरकार है कि हमहन के आदिवासी मानबै ना करले. जबकि पास के राजवन में हमहन के रिश्तेदारन के सरकार आदिवासी मानलै. इहां के सरकार के चलतै हमहन के सरकारी जमीन पट्टा नाहीं होत बा. सरकार तीन पिढ़ियन के  काग़ज़ मांगत बा. बतावा हमहन अनपढ़-गंवार कहां से इतना पुराना काग़ज़ पावल जाई.

सोनभद्र के  घोरावल विकास खंड के  पेढ़ गांव निवासी श्यामचरण कोल जिस दर्द को बयां कर रहे हैं, वह उत्तर प्रदेश में निवास करने वाली कोल, कोरवा, मझवार, धांगड़ (उरांव), बादी, मलार, कंवर आदि अनुसूचित जातियों के  लाखों लोगों का दर्द है. श्यामचरण कोल सरीखे लाखों लोग जंगल से लकड़ी, कंदमूल आदि लाकर और मज़दूरी करके  पेट की आग शांत कर लेते हैं, लेकिन सरकारी दाव-पेंच में फंसकर जेल की हवा खाने का ख़ौ़फ इन्हें हमेशा सालता रहता है. इस ख़ौ़फ की वजह ज़िला प्रशासन है. ज़िला प्रशासन ने अब तक सैकड़ों लोगों पर अवैध क़ब्ज़े का आरोप लगाकर जेल भेज दिया है, जो अभी भी जेल की हवा खाने को मजबूर हैं.
ग़ौरतलब है कि कोल, कोरवा, मझवार, धांगड़ (उरांव), बादी, मलार, कंवर सरीखी जातियों के  लोग आदिकाल से जंगलों में निवास कर अपना जीवनयापन करते हैं. इसका वर्णन शास्त्रों में भी मिलता है. आज से क़रीब चार सौ साल पहले तुलसीदास ने रामचरित मानस  में भी कोलों का वर्णन आदिवासी के  रूप में किया है. भारत सरकार ने भी बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में कोल, कोरवा, मझधार, धांगड़(उरांव), बादी, मलार, कंवर आदि जातियों को आदिवासी के दर्ज़े से नवाज़ा है. वहीं, जनसंख्या के  लिहाज़ से देश के  सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल किया गया है. इस कारण इन जातियों के लोगों को अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) क़ानून-2006 यानी वनाधिकार क़ानून का लाभ नहीं मिल पा रहा है.

विसंगतियों भरे वनाधिकार क़ानून के  प्रावधान के  कारण वन विभाग की भूमि पर क़ाबिज़ आदिवासियों को ही आसानी से क़ब्ज़ा मिल पाता है. अन्य परंपरागत वन निवासियों को अब भी पूर्वजों की ज़मीन पर निवास करने अथवा खेती करने के  अधिकार से वंचित रहना पड़ रहा है. वनाधिकार क़ानून में अन्य परंपरागत वन निवासियों के  लिए उल्लिखित जंगल में पूर्वजों की तीन पीढ़ियों के  निवास प्रमाण पत्र के प्रावधान ने कोल सरीखे पारंपरिक आदिवासियों को कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया है. इन प्रमाणों को प्रशासन के  सामने पेश करने के लिए इन्हें काफी परेशानी उठानी पड़ रही है. इस कारण ये वनाधिकार क़ानून के  लाभ से भी वंचित हो रहे हैं. प्रशासन उन्हें अतिक्रमणकारी बताकर जेलों में ठूंस रहा है. प्रशासन की कार्रवाई से यह प्रश्न उठने लगा है कि आख़िरकार आदिवासी कौन हैं? पारंपरिक रूप से वनों में रहकर उसके अवशेषों से गुज़र बसर करने वाले लोग या फिर राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदों द्वारा तैयार किए गए काग़ज़ के पुलिंदों में अंकित जातियों के लोग. उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, मिर्ज़ापुर, चंदौली, इलाहाबाद, चित्रकूट, बांदा, ललितपुर, झांसी आदि ज़िलों में निवास करने वाली कोल जाति के  क़रीब छह लाख (वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर 3,87,523) लोगों को वनाधिकार क़ानून का लाभ मिलता दिखाई नहीं दे रहा है, जबकि अन्य राज्यों समेत शास्त्रों तक में ये आदिवासी हैं. साथ ही उत्तर प्रदेश में कोलों की सामाजिक स्थिति काफी दयनीय है. इसका ख़ुलासा क़रीब सात साल पहले हुकूम सिंह कमेटी की रिपोर्ट में भी हो चुका है. रिपोर्ट के  अनुसार उत्तर प्रदेश सरकार में कोल जाति का एक भी व्यक्ति समूह-क का अधिकारी नहीं हैं. समूह-ख में कोल जाति का मात्र एक व्यक्ति सरकारी सेवायोजन में अपनी सेवा दे रहा है. सूबे में 1.1 फीसदी वाली कोल जाति के  मात्र 0.25 फीसदी लोग सरकारी संस्थानों में नौकरी कर रहे हैं. शेष आज भी जंगलों से लकड़ी, कंदमूल सरीखे अवशेष बेचकर और मज़दूरी करके अपना तथा अपने परिवार का पेट भर रहे हैं. फिर भी प्रशासन इन्हें उनकी पुस्तैनी ज़मीन से बेदखल कर रहा है. इसे लेकर पारंपरिक वन निवासियों (पारंपरिक आदिवासियों) और ज़िला प्रशासन के बीच आए दिन नोक-झोंक होती रहती है. इसकी जद में आकर ग़रीब पारंपरिक आदिवासी अपनी गाढ़ी कमाई कोर्ट और कचहरी में ख़र्च कर रहे हैं. इसके बावजूद सैकड़ों लोग मिर्ज़ापुर, वाराणसी और सोनभद्र की जेलों में जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं. उत्तर प्रदेश में कोल सरीखे पारंपरिक आदिवासियों के छिनते अधिकार पर सत्ताधारी अथवा ग़ैर-सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदें चुप्पी साधे हुए हैं. कोल बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले बहुजन समाज पार्टी के पूर्व सांसद लालचंद कोल और भाईलाल कोल भी संसद में अपने समुदाय की आवाज़ बुलंद नहीं कर सके. इस कारण उन्हें संसद की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा. क़रीब सवा लाख कोलों की आबादी वाले राबर्ट्सगंज संसदीय से अब समाजवादी पार्टी के पकौड़ी लाल कोल लोकसभा में लाखों कोलों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. फिर भी कोलों के आदिवासी दर्ज़े की आवाज़ संसद में बुलंद नहीं हो रही.उधर, उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित जनपद मिर्ज़ापुर, चंदौली और सोनभद्र में जिला प्रशासन नक्सल के नाम पर कोलों को निशाना बना रहा है. राजनाथ सिंह सरकार के दौरान पुलिस ने वर्ष 2001 में मिज़ार्र्पुर के भवानीपुर गांव में कोलों पर जो कहर ढाया वह आज भी लोगों के जेहन में सिहरन पैदा कर देता है. इसके कारण कोल जाति के लोग अपने हक़ की आवाज़ उठाने से कतरा रहे हैं. पूर्व में कुछ लोगों ने ज़िला प्रशासन की कारगुजारियों के ख़िला़फ आवाज़ उठाने की ज़ुर्रत की थी. बदले में उन्हें जेल की सजा मिली और कई को पुलिस की गोली. ज़िला प्रशासन की इन कारगुजारियों के  कारण सैकड़ों युवक अभी भी जेलों में बंद हैं. उत्तर प्रदेश में आदिवासी के  अधिकार से वंचित कोल, कोरवा, मझवार, धांगड़ (उरांव), बादी मलार, कंवर आदि जातियों के  लोग अपनी पुस्तैनी ज़मीन से बेदखल होने के बाद दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं. साथ ही, उनकी अमूल्य नृत्य संस्कृति भी दम तोड़ रही है. आदिवासियों के  वनाधिकार क़ानून समेत अन्य अधिकारों को लेकर कुछ सामाजिक और राजनीतिक संगठनों ने आवाज़ उठानी शुरू कर दी है. इन संगठनों में जन संघर्ष मोर्चा, वनवासी गिरिवासी और श्रमजीवी विकास मंच का नाम प्रमुख है. राजनीतिक संगठन जन संघर्ष मोर्चा चंदौली, मिर्ज़ापुर और सोनभद्र में आदिवासियों के मुद्दे को लेकर आए दिन धरना-प्रदर्शन कर रहा है. अक्टूबर के पहले सप्ताह में मोर्चा नई दिल्ली में आदिवासियों के  मुद्दे को लेकर धरना-प्रदर्शन करने जा रहा है. इन सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के प्रयास से वनाधिकार क़ानून के लाभ से वंचित आदिवासियों ने भी धीरे-धीरे अपनी आवाज़ उठानी शुरू कर दी है, जो भविष्य में सत्ताधारी पार्टियों के लिए परेशानी का शबब बन सकता है. अगले साल होने वाले पंचायत चुनावों और 2012 के  विधानसभा चुनावों में पारंपरिक आदिवासी राजनीतिक नुमाइंदों से पूछ सकते हैं – वास्तविक आदिवासी कौन?

चौथी दुनिया में प्रकाशित रिपोर्ट का लिंक
http://www.chauthiduniya.com/2009/08/aaj-bhi-nahi-mil-rahi.html 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें