सोमवार, 1 सितंबर 2014

सोनभद्र के दुद्धी में चुनाव से पहले हारी कांग्रेस

written by Shiv Das

कांग्रेस उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र (अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित) में चुनाव से पहले ही हार गई है। निर्वाचन आयोग ने इस निर्वाचन सीट पर कांग्रेस की ओर से घोषित उम्मीदवार विजय सिंह गोंड़ का पर्चा खारिज कर दिया है। साथ ही निर्वाचन आयोग ने कांग्रेस पार्टी के डमी उम्मीदवार सुभाष बैंसवार का नामांकन भी कुछ तकनीकी कारणों की वजह से खारिज कर दिया है। अब इस विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस का कोई भी उम्मीदवार चुनाव मैदान में नहीं है। 

बता दें कि सोनभद्र में अनुसूचित जनजाति वर्ग के विजय सिंह गोंड़ ने चुनाव लड़ने के लिए लखनऊ के पते से अनुसूचित जाति का जाति प्रमाण-पत्र बनवाया था। मामला संज्ञान में आने के बाद लखनऊ के उप-जिलाधिकारी ने विजय सिंह गोंड़ का लखनऊ का जाति प्रमाण-पत्र निरस्त कर दिया। साथ ही उन्होंने इसकी सूचना सोनभद्र के निर्वाचन अधिकारी को फैक्स के माध्यम से दे दी। इसे आधार बनाते हुए जिला निर्वाचन अधिकारी ( रिटर्नेनिंग ऑफिसर) ने पूर्व विधायक एवं कांग्रेस उम्मीदवार विजय सिंह गोंड़ का नामांकन खारिज कर दिया। दुद्धी विधानसभा से करीब 27 साल तक विधायक रहे विजय सिंह गोंड़ का नामांकन खारिज होने के साथ ही कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का बहुजन समाज पार्टी के गढ़ (दुद्धी, ओबरा, राबर्ट्सगंज, घोरावल और चकिया विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र) में सेंध लगाने का सपना चकनाचूर हो गया है। जिसे पूरा करने के लिए कांग्रेस की यूपीए सरकार ने 2004 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद से ही उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के प्रतिनिधित्व के अधिकार को कानूनी दांवपेंच में फंसा रखा था। इतना ही नहीं, जब सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश के आदिवासियों की जीत हुई तो गांधी-नेहरू परिवार के युवराज राहुल गांधी ने 21 जनवरी, 2012 को दुद्धी नगर के टाउन हाल में पहली बार जनसभा कर इसका श्रेय लेने की भी कोशिश की। उन्होंने यहां के आदिवासियों से विजय सिंह गोंड़ को जीताकर कांग्रेस में विश्वास करने की अपील भी की। लेकिन चुनाव आयोग की शख्ती के कारण उनका सपना चुनाव से पहले ही टूट गया। साथ ही कांग्रेस की उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को छलने की नीति की पोल खुल गई, जिन्हें वो केवल सत्ता तक पहुंचने के लिए सियासी बिसात पर बिछे शतरंज का मोहरा ही समझती है। इस बात का प्रमाण पिछले एक दशक से अपने प्रतिनिधित्व के अधिकार के लिए लड़ रहे उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के संघर्ष के मामले में साफ दिखाई देता है। 

दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र की 75 फीसदी से ज्यादा आबादी आदिवासी है। इसके बाद भी यहां की विधानसभा अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। उत्तर प्रदेश में भी आदिवासियों की आबादी 10 लाख से अधिक हो चुकी है। हालांकि सरकार के कागजी पुलिंदों में ये सच्चाई सामने आऩी बाकी है क्योंकि2011 की जनगणना के आंकड़ों में अगर ये सच्चाई सामने आ गई होती तो उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को उनका लोकतांत्रिक अधिकार मिल गया होता। वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस मामले को सरकार से जीत चुके थे। सुप्रीम कोर्ट ने भी उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के जनप्रतिनिधित्व अधिकार पर 10 जनवरी को मुहर लगा दी। लेकिन देर से फैसला आने के कारण उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को फरवरी-मार्च में होने वाले विधानसभा चुनाव में एक बार फिर अपने प्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित होना पड़ रहा है। ऐसा होने के पीछे कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार की कारगुजारियां बहुत हद तक जिम्मेदार दिखाई देती हैं। 

अगर यूपीए सरकार की ओर से सही समय पर उनके अधिकारों की रक्षा के लिए पहल की गई होती तो उत्तर प्रदेश के वर्तमान विधानसभा चुनाव में अनुसूचित जनजाति के लिए दो सीटें आरक्षित हो सकती थीं, जिनमें से एक दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र होता। लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकारों ने ऐसा नहीं होने दिया। इसके रणनीतिकारों में इसके नुमाइंदों ने जानबूझकर देरी की। जिसका सुबूत उसकी अगुआई वाली यूपीए सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दी गई रिपोर्ट से मिलता है। 

उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के प्रतिनिधित्व अधिकार के मामले को लेकर गैर-सरकारी संगठन प्रदेशीय जनजाति विकास मंच और आदिवासी विकास समिति ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका संख्या-46821/2010 दाखिल की थी। इसमें उन्होंने त्रिस्तरीय पंचायतों में आदिवासियों को उचित प्रतिनिधित्व के लिए सीटें आरक्षित करने की मांग की थी। न्यायमूर्ति सुनील अंबानी और काशी नाथ पांडे की पीठ ने 16 सितंबर, 2010 को आदिवासियों के हक में फैसला दिया। इसमें साफ कहा कि अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जाति समुदाय के लोगों का आबादी के अनुपात में विभिन्न संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार उनका संवैधानिक आधार है। यह उन्हें मिलना चाहिए। पीठ ने राज्य सरकार के उस तर्क को भी खारिज कर दिया था कि "अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002" लागू होने के बाद राज्य में आदिवासियों की आबादी का सरकारी आंकड़ा नहीं है। पीठ ने साफ कहा कि 2001 की जनगणना में अनुसूचित जाति वर्ग और अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जातियों की जनगणना अलग-अलग कराई कई थी और इसका विवरण विकासखंड और जिला स्तर पर भी मौजूद है। इसकी सहायता से अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में शामिल हुई जातियों की आबादी को पता किया जा सकता है। पीठ ने त्रिस्तरीय पंचायतों में सीटें आरक्षित करने का आदेश दिया, लेकिन चुनाव की अधिसूचना जारी हो जाने के कारण पंचायत चुनाव-2010 में उच्च न्यायालय का आदेश लागू नहीं हो पाया। इसके बाद भी राज्य की सत्ता में काबिज बहुजन समाज पार्टी और केंद्र की सत्ता में काबिज संप्रग सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के लिए कदम नहीं बढ़ाया। जब विजय सिंह गोंड़ ने कांग्रेस में शामिल होने का फैसला कर लिया तो केंद्र की यूपीए सरकार की रणनीति के तहत उनके बेटे विजय प्रताप ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका संख्या-540/2011 दाखिल की। इसकी सुनवाई के दौरान कांग्रेस की यूपीए सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हक में रिपोर्ट दी। जबकि इससे पहले विजय सिंह गोंड़ की जनहित याचिका में यूपीए सरकार इसका विरोध कर चुकी है। 

राज्य सरकार और केंद्रीय चुनाव आयोग को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 10 जनवरी, 2012 को आदिवासियों के हक में फैसला दिया। पीठ ने अपने फैसले में कहा कि त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडल और संसद में उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के लिए उनकी आबादी के आधार पर सीटों का आरक्षण सुनिश्चित किया जाए, लेकिन केंद्रीय चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया में दो से तीन माह का समय लगने का हवाला देकर फरवरी-मार्च में होने वाले विधानसभा चुनाव में सीटें आरक्षित करने से इंकार कर दिया। लेकिन यहां पर चुनाव आयोग ने जो बात सुप्रीम कोर्ट में बताई वो कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार की पोल खोलती है। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उसके पास राष्ट्रपति के 2003 के आदेश के अलावा कोई भी अन्य आदेश अथवा निर्देश केंद्र सरकार या उत्तर प्रदेश सरकार से नहीं मिला है। और ना ही किसी आयोग का निर्देश उसे प्राप्त हुआ है। सवाल खड़ा होता है कि खुद को आदिवासियों का सबसे बड़ा हितैषी बताने वाली कांग्रेस और उसके युवराज राहुल गांधी पिछले एक दशक से क्या कर रहे थे। जबकि उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के प्रतिनिधित्व का मुद्दा विधानमंडल, संसद, अनुसूचित जनजाति मंत्रालय, अनुसूचित जनजाति आयोग, प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ-साथ इलाहाबाद उच्च न्यायालय सरीखी संवैधानिक संस्थाओं में भी उठ चुका था। इतना ही नहीं, 10 जनवरी, 2008 को राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में अनुसूचित जनजाति मंत्रालय के सचिवों के साथ इस मुद्दे पर बैठक भी हुई थी, लेकिन कांग्रेस पार्टी और इसके नुमाइंदे इस मामले पर चुप रहे। 16सितंबर, 2010 को हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी कांग्रेस वाली संप्रग सरकार और राहुल गांधी ने कोई कदम आगे नहीं बढ़ाया। 

दुद्धी विधानसभा के पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड से कांग्रेस का दामन पकड़ने का फैसला हो गया तो केंद्र की यूपीए सरकार उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हित का ढिंढोरा पिटने लगी और सुप्रीम कोर्ट में उनके पक्ष में रिपोर्ट भी दे दिया। इतना ही नहीं वो 2011 में हुई जनगणना के तहत उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति वर्ग के आंकड़े भी चुनाव आयोग को मुहैया कराने के लिए तैयार हो गई। ताकि विजय सिंह गोंड़ के रूप में दुद्धी विधानसभा से कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में एक विधायक मिल सके और बहुजन समाज पार्टी के गढ़ (दुद्धी, राबर्ट्सगंज,राजगढ़, चकिया, ओबरा, घोरावल विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र) में सेंध लगाई जा सके। इसे परवान चढ़ाने के लिए नाटकीय ढंग से विजय सिंह गोंड सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से पहले समाजवादी पार्टी को छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन कांग्रेस और विजय सिंह गोंड़ की रणनीति चुनाव आयोग के हलफनामे से बेकार हो गई। इसके साथ ही एक बार उत्तर प्रदेश के आदिवासी विधानसभा में अपनी आबादी के आधार पर प्रतिनिधित्व पाने से वंचित हो गए। हालांकि विजय सिंह गोंड़ ने हार नहीं मानी। उन्होंने लखनऊ के आवासीय पते पर वहां के राजस्व विभाग से अनुसूचित जाति का प्रमाण-पत्र हासिल कर लिया। इसको आधार बनाते हुए उन्होंने फरवरी-मार्च में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में दुद्धी निर्वाचन क्षेत्र से पिछले दिनों नामांकन दाखिल किया था जिसे इस साल की 30 जनवरी को निर्वाचन आयोग ने खारिज कर दिया है। 

निर्वाचन आयोग के इस कदम को जनसंघर्ष मोर्चा के राष्ट्रीय प्रवक्ता और ओबरा विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के उम्मीदवार दिनकर कपूर ने कांग्रेस की गलत नीतियों का परिणाम करार दिया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने आदिवासियों का इस्तेमाल किया है। उसने आदिवासियों के साथ धोखाधड़ी करने की कोशिश की है जिसके लिए उसे माफी मांगनी चाहिए। वही भारतीय जनता पार्टी के सोनभद्र अध्यक्ष धर्मवीर तिवारी ने दोहरा लाभ लेने के लिए धोखाखड़ी करने वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर कड़ी कार्रवाई करने की मांग की। उन्होंने कहा कि कांग्रेस और विजय सिंह गोंड़ ने जनता के साथ-साथ चुनाव आयोग को भी गुमराह करने की कोशिश की है। बहुजन समाज पार्टी के जिला महासचिव निशांत कुशवाहा ने कहा कि कांग्रेस की गुमराह करने वाली नीति की पोल खुल गई है। साथ ही विजय सिंह गोंड़ की भी नीति उजागर हो गई है। जिले के आदिवासियों को विजय सिंह गोंड़ की स्वार्थी राजनीति को समझकर सही उम्मीदवार का चयन करना चाहिए।

मूल लेख स्त्रोत:-
द पब्लिक लीडर मीडिया ग्रुप, 
राबर्ट्सगंजसोनभद्रउत्तर प्रदेश
ई-मेल:thepublicleader@gmail.com, 

मोबाइल-09910410365

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