मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

सोनभद्र का दर्द !


उत्तर प्रदेष के सर्वाधिक पिछड़े इलाकोे मे से एक का अवलोकन करना हो तो सोनांचल का नाम भी आज खासा महत्वपूर्ण हो चला है। एक बार तो किसी को भी सुनने मे हैरानी होगी की यह वही इलाका है जहां पर सघन वन क्षेत्र के बीच ढेर सारी विद्युत इकाईयां है हिण्डालको इण्डस्ट्रीज, जे0पी0 सिमेन्ट और यहां पर खनीज तथा लवण के साथ आयुर्वेदिक जड़ी वुटीयों का भी भरा पुरा भण्डार है। लेकिन इन तमाम वरियताओं के बावजूद भी इस इलाके को आज भी आजादी से पहले वाले काल मे रहना पड़ रहा है। 

लगभग 6788 वर्ग किलोमीटर मे फैला हुआ सोनभद्र 3782 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है जहां हिण्डालको, जे0पी0 ग्रुप के अलावा एन.सी.एल. की कोयला खदाने, एन.टी.पी.सी., ओबरा, अनपरा जैसी बृहद ताप विद्युत परियोजनाएं भी इसी वन क्षेत्र के बीच बनाई गयी है। कालान्तर मे अनपरा परियोजना का दो चरणों के बाद तिसरे चरण मे बिस्तार भी हुआ लेकिन उस विस्तार मे कई महा घोटालों का समन्वय भी सरकारी लिपापोती के बाद स्थापित हुआ। 

चार राज्यों के सिमाओं से सटा उत्तर प्रदेष के मस्तक का तिलक या फिर अपने ऊर्जा उत्पादन के कारण ऊर्जांचल के नाम से भी जाना गया आजादी के फौरन बाद जब पंडित जवाहर लाल नेहरू ने यहां पर रिहन्द जलाषय और रिहन्द बांध परियोजना का नींव रखी तो उनका सपना था की यहां से समस्त उत्तर भारत को विद्युत आपूर्ति की जा सके इसी कारण यहां समसय-समय पर अन्य विद्युत इकाईयों का निर्माण भी हुआ लेकिन उस निर्माण मे इस इलाके के सभ्यता को भी छिन्न-भिन्न कर दिया।  परियोजनाओं के निर्माण के लिए यहां मूलनिवासी गरीब अदिवासियों की सारी जमीने हथिया ली गयी लेकिन इसके बदले न तो जमीन का मूआवजा मिला न तो नौकरी ही मिली और सिर्फ मिला तो बेवसी के आसूं और ऐतिहासिक अन्याय है 

दुर से देखने पर चमक-दमक और चकाचैध का नाजारा पेष करने वाली इन औद्योगिक इकईयों को जंगलों का सिना चीर कर और पहाड़ोे को तरास कर बनाया गया। उस समय और बाद मे हर बार नई परियोजनाओं के बनने के साथ इन इलाके के आदिचासियों के सामने सब्जबाज दिखाये गये और हर बार उनके सपनो को परवान चढने के पहले ही तोड़ दिया गया। 

इन आदिवासियों के पूर्नवास, नौकरी, मूआवजे और अधिकार इन सब बिन्दुओं के बावत जब संबंधित अधिकारी से हमने जबाव मांगने की कोषिस की तो उन्हाने ने अपनी उपलब्धियां गिनाते हुए अपने अधिकारो के स्मर्थता का बयान किया और मामले को षासन स्तर से सुलझाने की ताकीद करने के अलावा उनके पास आदिवासियों के पुर्नवास एवं पुर्नबसाहट पर कोई ठोस जवाब नही है। 

सोनभद्र आज भी अधिकारियों जन प्रतिनिधियों, समाज सेवकों और निजी संस्थानों के लिए सोने की चिडि़याॅ के समान है लेकिन इन सोने की चिडि़याॅ के बच्चे आज भी दाने-दाने को मोहताज है चिराग तले अंधरे के इस सबसे बड़े उदाहरण के पिछे व्यवस्था का घिनौना चेहरा है, न जाने इन आदिवासियों को आजादी कब मिलेगी लेकिन भय है तो सिर्फ बगावत का जो देष के औद्यौगिक बिकास के पहिये की गति को विराम न लगा दे। 

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