सोमवार, 1 सितंबर 2014

आज भी नहीं मिल रही आदिवासियों को पहचान

written by Shiv Das
बाबू, हमहन आदिवासी हइला. पास के जंगलवा में लकड़ी बिनके आउर मज़दूरी कइके अपन पेट पालिला जा. हमहन के  बाउ-माई, दादा-दादी भी इहै काम करत रहलैं. लेकिन इ जवन सरकार है कि हमहन के आदिवासी मानबै ना करले. जबकि पास के राजवन में हमहन के रिश्तेदारन के सरकार आदिवासी मानलै. इहां के सरकार के चलतै हमहन के सरकारी जमीन पट्टा नाहीं होत बा. सरकार तीन पिढ़ियन के  काग़ज़ मांगत बा. बतावा हमहन अनपढ़-गंवार कहां से इतना पुराना काग़ज़ पावल जाई.

सोनभद्र के  घोरावल विकास खंड के  पेढ़ गांव निवासी श्यामचरण कोल जिस दर्द को बयां कर रहे हैं, वह उत्तर प्रदेश में निवास करने वाली कोल, कोरवा, मझवार, धांगड़ (उरांव), बादी, मलार, कंवर आदि अनुसूचित जातियों के  लाखों लोगों का दर्द है. श्यामचरण कोल सरीखे लाखों लोग जंगल से लकड़ी, कंदमूल आदि लाकर और मज़दूरी करके  पेट की आग शांत कर लेते हैं, लेकिन सरकारी दाव-पेंच में फंसकर जेल की हवा खाने का ख़ौ़फ इन्हें हमेशा सालता रहता है. इस ख़ौ़फ की वजह ज़िला प्रशासन है. ज़िला प्रशासन ने अब तक सैकड़ों लोगों पर अवैध क़ब्ज़े का आरोप लगाकर जेल भेज दिया है, जो अभी भी जेल की हवा खाने को मजबूर हैं.
ग़ौरतलब है कि कोल, कोरवा, मझवार, धांगड़ (उरांव), बादी, मलार, कंवर सरीखी जातियों के  लोग आदिकाल से जंगलों में निवास कर अपना जीवनयापन करते हैं. इसका वर्णन शास्त्रों में भी मिलता है. आज से क़रीब चार सौ साल पहले तुलसीदास ने रामचरित मानस  में भी कोलों का वर्णन आदिवासी के  रूप में किया है. भारत सरकार ने भी बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में कोल, कोरवा, मझधार, धांगड़(उरांव), बादी, मलार, कंवर आदि जातियों को आदिवासी के दर्ज़े से नवाज़ा है. वहीं, जनसंख्या के  लिहाज़ से देश के  सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल किया गया है. इस कारण इन जातियों के लोगों को अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) क़ानून-2006 यानी वनाधिकार क़ानून का लाभ नहीं मिल पा रहा है.

विसंगतियों भरे वनाधिकार क़ानून के  प्रावधान के  कारण वन विभाग की भूमि पर क़ाबिज़ आदिवासियों को ही आसानी से क़ब्ज़ा मिल पाता है. अन्य परंपरागत वन निवासियों को अब भी पूर्वजों की ज़मीन पर निवास करने अथवा खेती करने के  अधिकार से वंचित रहना पड़ रहा है. वनाधिकार क़ानून में अन्य परंपरागत वन निवासियों के  लिए उल्लिखित जंगल में पूर्वजों की तीन पीढ़ियों के  निवास प्रमाण पत्र के प्रावधान ने कोल सरीखे पारंपरिक आदिवासियों को कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया है. इन प्रमाणों को प्रशासन के  सामने पेश करने के लिए इन्हें काफी परेशानी उठानी पड़ रही है. इस कारण ये वनाधिकार क़ानून के  लाभ से भी वंचित हो रहे हैं. प्रशासन उन्हें अतिक्रमणकारी बताकर जेलों में ठूंस रहा है. प्रशासन की कार्रवाई से यह प्रश्न उठने लगा है कि आख़िरकार आदिवासी कौन हैं? पारंपरिक रूप से वनों में रहकर उसके अवशेषों से गुज़र बसर करने वाले लोग या फिर राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदों द्वारा तैयार किए गए काग़ज़ के पुलिंदों में अंकित जातियों के लोग. उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, मिर्ज़ापुर, चंदौली, इलाहाबाद, चित्रकूट, बांदा, ललितपुर, झांसी आदि ज़िलों में निवास करने वाली कोल जाति के  क़रीब छह लाख (वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर 3,87,523) लोगों को वनाधिकार क़ानून का लाभ मिलता दिखाई नहीं दे रहा है, जबकि अन्य राज्यों समेत शास्त्रों तक में ये आदिवासी हैं. साथ ही उत्तर प्रदेश में कोलों की सामाजिक स्थिति काफी दयनीय है. इसका ख़ुलासा क़रीब सात साल पहले हुकूम सिंह कमेटी की रिपोर्ट में भी हो चुका है. रिपोर्ट के  अनुसार उत्तर प्रदेश सरकार में कोल जाति का एक भी व्यक्ति समूह-क का अधिकारी नहीं हैं. समूह-ख में कोल जाति का मात्र एक व्यक्ति सरकारी सेवायोजन में अपनी सेवा दे रहा है. सूबे में 1.1 फीसदी वाली कोल जाति के  मात्र 0.25 फीसदी लोग सरकारी संस्थानों में नौकरी कर रहे हैं. शेष आज भी जंगलों से लकड़ी, कंदमूल सरीखे अवशेष बेचकर और मज़दूरी करके अपना तथा अपने परिवार का पेट भर रहे हैं. फिर भी प्रशासन इन्हें उनकी पुस्तैनी ज़मीन से बेदखल कर रहा है. इसे लेकर पारंपरिक वन निवासियों (पारंपरिक आदिवासियों) और ज़िला प्रशासन के बीच आए दिन नोक-झोंक होती रहती है. इसकी जद में आकर ग़रीब पारंपरिक आदिवासी अपनी गाढ़ी कमाई कोर्ट और कचहरी में ख़र्च कर रहे हैं. इसके बावजूद सैकड़ों लोग मिर्ज़ापुर, वाराणसी और सोनभद्र की जेलों में जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं. उत्तर प्रदेश में कोल सरीखे पारंपरिक आदिवासियों के छिनते अधिकार पर सत्ताधारी अथवा ग़ैर-सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदें चुप्पी साधे हुए हैं. कोल बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले बहुजन समाज पार्टी के पूर्व सांसद लालचंद कोल और भाईलाल कोल भी संसद में अपने समुदाय की आवाज़ बुलंद नहीं कर सके. इस कारण उन्हें संसद की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा. क़रीब सवा लाख कोलों की आबादी वाले राबर्ट्सगंज संसदीय से अब समाजवादी पार्टी के पकौड़ी लाल कोल लोकसभा में लाखों कोलों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. फिर भी कोलों के आदिवासी दर्ज़े की आवाज़ संसद में बुलंद नहीं हो रही.उधर, उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित जनपद मिर्ज़ापुर, चंदौली और सोनभद्र में जिला प्रशासन नक्सल के नाम पर कोलों को निशाना बना रहा है. राजनाथ सिंह सरकार के दौरान पुलिस ने वर्ष 2001 में मिज़ार्र्पुर के भवानीपुर गांव में कोलों पर जो कहर ढाया वह आज भी लोगों के जेहन में सिहरन पैदा कर देता है. इसके कारण कोल जाति के लोग अपने हक़ की आवाज़ उठाने से कतरा रहे हैं. पूर्व में कुछ लोगों ने ज़िला प्रशासन की कारगुजारियों के ख़िला़फ आवाज़ उठाने की ज़ुर्रत की थी. बदले में उन्हें जेल की सजा मिली और कई को पुलिस की गोली. ज़िला प्रशासन की इन कारगुजारियों के  कारण सैकड़ों युवक अभी भी जेलों में बंद हैं. उत्तर प्रदेश में आदिवासी के  अधिकार से वंचित कोल, कोरवा, मझवार, धांगड़ (उरांव), बादी मलार, कंवर आदि जातियों के  लोग अपनी पुस्तैनी ज़मीन से बेदखल होने के बाद दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं. साथ ही, उनकी अमूल्य नृत्य संस्कृति भी दम तोड़ रही है. आदिवासियों के  वनाधिकार क़ानून समेत अन्य अधिकारों को लेकर कुछ सामाजिक और राजनीतिक संगठनों ने आवाज़ उठानी शुरू कर दी है. इन संगठनों में जन संघर्ष मोर्चा, वनवासी गिरिवासी और श्रमजीवी विकास मंच का नाम प्रमुख है. राजनीतिक संगठन जन संघर्ष मोर्चा चंदौली, मिर्ज़ापुर और सोनभद्र में आदिवासियों के मुद्दे को लेकर आए दिन धरना-प्रदर्शन कर रहा है. अक्टूबर के पहले सप्ताह में मोर्चा नई दिल्ली में आदिवासियों के  मुद्दे को लेकर धरना-प्रदर्शन करने जा रहा है. इन सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के प्रयास से वनाधिकार क़ानून के लाभ से वंचित आदिवासियों ने भी धीरे-धीरे अपनी आवाज़ उठानी शुरू कर दी है, जो भविष्य में सत्ताधारी पार्टियों के लिए परेशानी का शबब बन सकता है. अगले साल होने वाले पंचायत चुनावों और 2012 के  विधानसभा चुनावों में पारंपरिक आदिवासी राजनीतिक नुमाइंदों से पूछ सकते हैं – वास्तविक आदिवासी कौन?

चौथी दुनिया में प्रकाशित रिपोर्ट का लिंक
http://www.chauthiduniya.com/2009/08/aaj-bhi-nahi-mil-rahi.html 

आदिवासियों के सघंर्ष ने इतिहास रचा

written by Shiv Das

बीस दिसंबर की सुबह. उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल जनपद सोनभद्र का पुलिस लाइन परिसर. विंध्य की पहाड़ियों में आबाद नगर पंचायत चुर्क (गुर्मा) स्थित इस परिसर में सूर्य निकलने के साथ ही शुरू होती है आदिवासियों एवं नौकरशाहों की चहलक़दमी. यह सब कुछ समझने में आसपास के लोगों को ज़्यादा सिर खपाना नहीं पड़ता. उन्हें मालूम है कि आज का दिन देश के आदिवासी संघर्ष के इतिहास में अपनी जगह सुनिश्चित करेगा. आदिवासियों की भीड़ में कोई अपने ठिठुरते बदन को मटमैली धोती और स्वेटर में छुपाए हुए है तो कोई फटी चादर में. कोई आदिवासी महिला ठंड हवाओं से बचने के लिए मटमैली चादर अथवा शाल को सुरक्षा कवच बनाए हुए है तो कोई खुद को सूती साड़ी में छुपाती नज़र आ रही है. किसी के पैर में प्लास्टिक की टूटी चप्पलें हैं तो कोई सड़क पर स्वागत कर रहे कंकड़ों को नंगे पांव रौंदता हुआ आगे बढ़ रहा है. दूसरी ओर सूट-बूट में लग्ज़री गाड़ियों से निकलने वाले नौकरशाहों की जमात है, जो अपने हुक्मरानों की आवभगत में जुटे हुए हैं.  कुर्सियों पर विराजमान होकर प्रायः गप्प मारने वाले लिपिकों की फौज फाइलों के अंदर रखे काग़ज़ों को दुरुस्त करने में जुटी हुई.

आज़ादी के 62 वर्षों बाद भी अपने पुश्तैनी अधिकार (जंगल की ज़मीन का हक़) के लिए लड़ रहे आदिवासियों और नौकरशाहों की उक्त तस्वीर बता रही है कि देश के दो अंकों वाली विकास दर में हम कहां हैं? ख़ैर, आदिवासी संघर्ष के ऐतिहासिक पल की घड़ी जैसे-जैसे नज़दीक आ रही है, वैसे-वैसे परिसर में लाखों रुपये ख़र्च करके बने पंडाल में बिछी कुर्सियां भरती जा रही हैं. साथ ही पास में बिछी दरी का रकबा भी कम होता जा रहा है. सुबह के साढ़े दस बज चुके हैं. अचानक गड़गड़ाहट की आवाज़ सुनाई देती है. पंडाल में बैठे लोगों की निगाहें आवाज़ की ओर जाती हैं. पता चलता है कि यह आवाज़ लखनऊ से आए सरकारी नुमाइंदों के हेलीकॉप्टर की है. हेलीकॉप्टर पंडाल के पास ज़मीन पर उतरता है. पंडाल में बैठे लोग इधर-उधर भागने लगते हैं. चंद मिनटों बाद लोग पुनः अपने स्थान को ग्रहण कर लेते हैं. उनकी बेसब्री बढ़ जाती है. दोपहर 12 बजे समाज कल्याण विभाग उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव प्रेम नारायण, प्रमुख सचिव (वन) चंचल कुमार तिवारी, प्रमुख सचिव (राजस्व) आर पी सिंह, मुख्यमंत्री के सचिव अनिल संत एवं समाज कल्याण निदेशक रामबहादुर आदि आला अधिकारी मंचासीन होते हैं. मौक़ा है भारत सरकार के अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारी की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं नियम 2007 के तहत आदिवासियों को जंगल की ज़मीन पर अधिकार के प्रमाणपत्र वितरित करने के लिए आयोजित हुए कार्यक्रम का. दीप प्रज्जवलन के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ होता है. लाउडस्पीकर से अपने-अपने नामों की घोषणा सुनने के लिए आदिवासियों में बेचैनी बढ़ती जा रही है. अचानक दुद्धी तहसील के कुलडोमरी गांव निवासी 60 वर्षीय आदिवासी राम जी का नाम हवा में गूंजता है. तालियों की गड़गड़ाहट से लोग राम जी का स्वागत करते हैं. लंबे संघर्ष के बाद मिले अधिकार की ख़ुशी के आंसुओं को अपनी आंखों में छुपाए राम जी मंच पर पहुंचते हैं. समाज कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव प्रेम नारायण राम जी को प्रमाणपत्र प्रदान करते हैं और पूरा पंडाल एक बार फिर तालियों से गूंज उठता है. राम जी प्रमाणपत्र पाकर धन्य हो जाते हैं, क्योंकि यह उनके संघर्ष की जीत का परिणाम है.एक-एक करके 3100 आदिवासियों को जंगल की ज़मीन पर जोत-कोड़ करने और फसल उगाने का अधिकार प्रमाणपत्र दिया गया.
सोनभद्र की तीन तहसीलों घोरावल, राबटर्‌‌सगंज और दुद्धी के जंगलों की कुल 3258.50 एकड़ भूमि पर 3100 आदिवासियों को वनाधिकार क़ानून 2006 के तहत अधिकार दिया गया.
सोनभद्र में 275 ग्राम वनग्राम हैं. इन गांवों में वनाधिकार क़ानून के तहत ग्राम समितियों का गठन किया गया है. सोनभद्र में तीन लाख 78 हज़ार 442 आदिवासी हैं. वनाधिकार क़ानून के तहत कुल 51862 लोगों ने दावे ग्राम समितियों के पास प्रस्तुत किए थे. इनमें 32,371 दुद्धी तहसील, 15,912 राबटर्‌‌सगंज तहसील और 3,579 घोरावल तहसील से प्राप्त हुए थे. क़रीब 27,000 दावों का स्थलीय सत्यापन ज़िला स्तर पर किया गया, जिनमें 3100 आदिवासियों को वनाधिकार क़ानून के तहत अधिकार योग्य पाया गया. शेष दावों का सत्यापन हो रहा है. अधिकार प्रमाणपत्र पाने वाले सभी अनुसूचित जनजाति के हैं.

राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच की रोमा का कहना है कि यह जनवादी प्रक्रिया की जीत है. वनाधिकार क़ानून के तहत जल्द से जल्द आदिवासियों समेत अन्य परंपरागत वन निवासियों को भूमि अधिकार प्रमाणपत्र दिया जाए, अन्यथा स्थिति और भयावह होगी. रोमा उत्तर प्रदेश में वनाधिकार क़ानून की समन्वयक भी हैं. जन संघर्ष मोर्चा के संयोजक अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने उत्तर प्रदेश सरकार के इस क़दम को ऊंट के मुंह में जीरा करार दिया. उन्होंने जंगल की ज़मीन पर क़ाबिज़ सभी आदिवासियों समेत अन्य परंपरागत वन निवासियों को यथाशीघ्र भूमि अधिकार प्रमाणपत्र देने की मांग की. आदिवासी गिरिवासी समिति के अध्यक्ष एवं 27 वर्षों तक दुद्धी विधानसभा से विधायक रह चुके विजय सिंह गौड़ ने उत्तर प्रदेश सरकार की इस कार्रवाई को खानापूर्ति मात्र बताया. उन्होंने कहा कि आदिवासियों को उनकी पूरी ज़मीन मिलनी चाहिए, जिस पर वे क़ाबिज़ हैं. ज़िला प्रशासन ने बिना स्थलीय सत्यापन के ही लोगों को पांच बीघा की जगह पांच बिस्वा ज़मीन पर अधिकार का काग़ज़ पकड़ा दिया गया है. इससे आदिवासियों में संघर्ष बढ़ेगा.

चौथी दुनिया में प्रकाशित रिपोर्ट का लिंक 
http://www.chauthiduniya.com/2010/01/addiwasiyao-ke-sangarsh-ne-itihash-racha.html

सियासी भंवर में छटपटा रहा उत्तर प्रदेश का आदिवासी समुदाय


Written by Shiv Das/ शिव दास

कांग्रेस के महासचिव और नेहरू-गांधी परिवार के युवराज राहुल गांधी ने 21 जनवरी, 2012 को उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र दुद्धी में पहली बार कदम रखा। अंग्रेजों के जमाने में क्राउन स्टेट के नाम से नवाजे गए इस आदिवासी बहुल इलाके की एक सभा से उन्होने एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश की, लेकिन उनकी ये कोशिश सियासी भंवर में फंसे उत्तर प्रदेश के आदिवासियों की छटपटाट को शांत कर पाएगी, ऐसा दिखाई नहीं देता है। इसके पीछे कई वजहें हैं, जिनमें कई कांग्रेस की गलत नीतियों के ही परिणाम हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने पहली बार इस इलाके में कदम रखा है जबकि वे उत्तर प्रदेश में सैकड़ों बार आ चुके हैं। दिल्ली में खुद को आदिवासियों का सिपाही बताने वाले राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े और आदिवासी बहुल इलाके में उस समय भी कदम नहीं रखे थे जब यहां के बच्चे कुपोषण और भूखमरी की वजह से दम तोड़ रहे थे। और ये खबर राष्ट्रीय मीडिया से लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बन रही थी। इतना ही नहीं यहां के बच्चों का भविष्य बर्बाद करने वाले फ्लोराइड युक्त पानी की आवाज संसद में उठने के बाद भी उन्होंने यहां का रुख नहीं किया, जबकि यहां के दो दर्जन से अधिक गांवों में विकलांग बच्चों की कतार लगी हुई है। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेता पं. जवाहर लाल नेहरू ने आदिवासियों की इस धरती पर उद्योगीकरण की नींव रखी थी और यहां की जनता को विकास के सब्जबाग दिखाए थे। 12 जुलाई, 1954 को चुर्क सीमेंट फैक्ट्री का उद्घाटन करते हुए उन्होंने इस इलाके को भारत का स्वीटजरलैंड बनाने की बात कही थी। पंडित नेहरू ने कहा था़  "...यह स्थान भारत का स्वीटजरलैंड बनेगा"। इसके बाद यहां एशिया का सबसे बड़ा गोविंद बल्लभ पंत जलाशय रिहंद नदी पर बना, जिसे लोग रिहंद बांध के नाम से भी जानते हैं। इस जलाशय के निर्माण से दुद्धी क्राउन स्टेट समेत कैमूर क्षेत्र के करीब दो लाख आदिवासियों को विस्थापित होना पड़ा था। इन आदिवासियों के पुनर्वास की व्यवस्था आज तक नहीं हो पाई है। वे आज भी अपने हक के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। केंद्र और राज्य की कांग्रेस सरकारों ने यहां के आदिवासियों और किसानों से ये वादा किया था कि रिंहद जलाशय के निर्माण के बाद उनकी पथरीली जमीनों के हलक की प्यास बुझाने के लिए पानी मिलेगा, लेकिन उससे बिजली पैदा की जाने लगी जो देश की राजधानी को रौशन तो कर रही है लेकिन यहां के विस्थापितों और किसानों के घरों का अंधेरा नहीं मिटा रही। इतना ही नहीं, इस जलाशय का प्रदूषित पानी यहां के आदिवासियों और दलितों के घरों के लिए धीमा जहर बन गया है जो उनके नौनिहालों को जमीन पर पड़े रहने के लिए मजबूर कर दे रहा है। रिहंद जलाशय के निर्माण के अलावा आदिवासी बहुल इस इलाके में नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन यानी एनटीपीसी की कई इकाइयां भी स्थापित हुईं। फिर निजी कंपनियों ने आदिवासियों की धरोहर को नेस्तानाबूत करना शुरू कर दिया जिनमें हिण्डालको, कनोरिया केमिकल्स, जेपी एसोसिएट्स सरीखी नामी-गिरामी कंपनियां भी शामिल हैं। अब हालात ऐसे हैं कि इस इलाके के आदिवासियों का कोई ही ऐसा घर हो जिसमें कुपोषण या फ्लोरोसिस से प्रभावित सदस्य न हो। उत्तर प्रदेश का आदिवासी बहुल ये इलाका पंडित जवाहर लाल नेहरू का स्वीटजरलैंड तो बन नहीं सका, लेकिन भोपाल जरूर बन गया है जिसका अंदेशा आज से बहुत पहले एक कवि ने ये कहकर जताया था कि कल कालखाना काल बनेगा, सोनभद्र एक दिन भोपाल बनेगा। 

इन सभी बुनियादी समस्याओं के इतर भी एक समस्या यहां के आदिवासियों की है, जो अब पूरे उत्तर प्रदेश के आदिवासियों की समस्या बनकर सामने आई है। वो है त्रिस्तरीय पंचायतों से लेकर विधान सभा और संसद में उत्तर प्रदेश के आदिवासियों का समुचित प्रतिनिधित्व। देश में अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति वर्ग को आरक्षण मिले आठ दशक से अधिक हो चुके हैं, जिनमें भारतीय संविधान के तहत उनकी सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए मिले आरक्षण की अवधि शामिल है...लेकिन उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को देश और राज्य की त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडल और संसद में उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण अभी तक नहीं मिला है। इतना ही नहीं उनके मूल अधिकार भी उनसे छिन लिए जा रहे हैं। अगर सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर समेत उत्तर प्रदेश के अन्य आदिवासी बहुल जिलों की सामाजिक स्थितियों का विश्लेषण किया जाए तो इन इलाकों में सबसे दयनीय स्थिति आदिवासियों की है जो देश की आजादी से लेकर अबतक अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन उनका संवैधानिक अधिकार राज्य और केंद्र में शासन करने वाली सियासी पार्टियों के कारण अभी भी अदालतों और आयोगों के भंवर में फंसकर दम तोड़ रहा है। समाज के सबसे निचले स्तर पर जीवन व्यतीत कर रहे उत्तर प्रदेश के आदिवासियों की सत्ता में भागीदारी की बात करें तो अभी तक इनके लिए विधानसभा और लोकसभा में एक भी सीट आरक्षित नहीं है जबकि राज्य में इनकी आबादी 10 लाख से अधिक हो चुकी है।  हालांकि सरकार के कागजी पुलिंदों में ये सच्चाई सामने आऩी बाकी है क्योंकि 2011 की जनगणना के आंकड़ों में अगर ये सच्चाई सामने आ गई होती तो उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को उनका लोकतांत्रिक अधिकार मिल गया होता। वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस मामले में सरकार से केस जीत चुके थे। लेकिन कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने ऐसा होने नहीं दिया। वर्ग विशेष के दबाव और वोट बैंक की राजनीति के चलते कांग्रेस की यूपीए सरकार ने 2011 की जनगणना के साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के आंकड़े जारी नहीं किए, जबकि हर बार ये आंकड़े देश की आबादी के आंकड़ों के साथ ही जारी हो जाते थे। त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडल और संसद में उत्तर प्रदेश के आदिवासियों की आबादी के आधार पर उनके प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए लंबे अरसे से मांग की जा रही है लेकिन सियासत के गलियारों में कोई भी उनको उनका संवैधानिक अधिकार देना नहीं चाहता है। इनमें राज्य में राज्य में राज्य कर चुकीं कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी सरीखी पार्टियां भी शामिल हैं। ये मामला राज्य तक ही सीमित नहीं है क्योंकि कानून तो संसद से पास होता है। इसलिए केंद्र की बागडोर संभाल चुकी राजनीतिक पार्टियां भी उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन में बराबर की हिस्सेदार हैं। अगर केवल पिछले डेढ़ दशक के दौरान उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के संघर्ष और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन की बात करें तो इस अवधि में राज्य की समाजवादी पार्टी, बहुजन समाजपार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के साथ-साथ केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकारें भी इस खेल में बराबर की भागीदार रही हैं।

उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के अधिकारों पर सियासी खेल का इतिहास-
बात शुरू करते हैं कांग्रेस के शासनकाल में पास हुए अनुसूचित जनजाति (उत्तर प्रदेश) कानून-1967 से। इस कानून को कांग्रेस की सरकार ने उत्तर प्रदेश के सबसे निचले तबके यानी आदिवासी पर जबरन थोप दिया जिसके कारण वे आजतक अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित हैं। इस कानून के तहत उत्तर प्रदेश की पांच आदिवासी जातियों (भोटिया, भुक्सा, जन्नसारी, राजी और थारू) को अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल कर दिया गया। शेष कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदि आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में ही रहने दिया गया, जबकि इन जातियों की सामाजिक स्थिति आज भी उक्त पांचों आदिवासी जातियों के समान है। इन जातियों के आदिवासी समुदाय ने अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ाई छेड़ दी, जिसपर उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों ने वोट बैंक की गणित के हिसाब से अपना जाल बुनना शुरू कर दिया, जिनमें भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी प्रमुख रूप से शामिल रहीं। केंद्र की सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी यानी राजग ने राज्य की भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से बाजी मारते हुए 2002 में संसद में संविधान संशोधन का निर्णय लिया, जिसमें उसके नुमाइंदों की सत्ता में बने रहने की लालच भी छुपी थी। इसे अमलीजामा पहनाते हुए केंद्र की राजग सरकार ने उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के लिए संसद में "अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002" पेश किया, जिसे संसद ने पारित कर दिया। हालांकिसियासी पृष्ठभूमि में इस कानून में कुछ विशेष जिलों के आदिवासियों को ही शामिल किया गया था, जिसके कारण आदिवासी बहुल चंदौली जिले के इन जातियों के लोग इस कानून के लाभ से वंचित हो गए जबकि यही वो जिला है जहां उत्तर प्रदेश की सत्ता को पहली बार नक्सलवाद का लाल सलाम हिंसा के रूप में मिला। इसके बाद तो नक्सली राज्य की सत्ता के लिए नासूर बन गए। फिलहाल "अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002 के संसद से पास होने के बाद राष्ट्रपति ने भी इसे अधिसूचित कर दिया। केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्रालय ने 8 जनवरी 2003 को भारत सरकार का राजपत्र (भाग-2, खंड-1) जारी करते हुए गोंड़ (राजगोंड़, धूरिया, पठारी, नायक और ओझा) जाति को उत्तर प्रदेश के 13 जनपदों महराजगंज, सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, मऊ, आजमगढ़, जौनपुर, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी, मिर्जापुर और सोनभद्र में अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल कर दिया। साथ में खरवार, खैरवार को देवरिया, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी और सोनभद्र में, सहरिया को ललितपुर में, परहिया, बैगा, अगरिया, पठारी, भुईया, भुनिया को सोनभद्र में, पंखा, पनिका को सोनभद्र और मिर्जापुर में एवं चेरो को सोनभद्र और वाराणसी में अनुसूचित जनजाति में शामिल कर दिया गया।  लेकिन सूबे की कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, धांगर, मलार, बांदी, कंवर, कंवराई आदि आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में ही रहने दिया गया, जबकि इनकी भी सामाजिक स्थिति इन जिलों में अन्य जनजातियों के समान ही है। अगर हम इनके संवैधानिक अधिकारों पर गौर करें तो कोल को मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में, कोरबा को बिहार, मध्य प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल में, कंवर को मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में, मझवार को मध्य प्रदेश में, धांगड़ (उरांव) को मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र में, बादी (बर्दा) को गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र में अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल किया गया है। उत्तर प्रदेश में भी इन जातियों के लोगों की सामाजिक स्थिति अन्य प्रदेशों में निवास करने वाली आदिवासी जातियों के समान ही है जो समय-समय पर सर्वेक्षणों और मीडिया रिपोर्टों में सामने आता रहता है। 

उत्तर प्रदेश में "अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002" कानून ने एक बार फिर आदिवासी समुदाय के दुखते रग पर हाथ रख दिया। साथ ही "अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002" के तहत अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में शामिल हुआ आदिवासी समुदाय सत्ता में अपने भागीदारी के संवैधानिक अधिकार से ही वंचित हो गया। इस कानून के लागू होने से वे त्रिस्तरीय पंचायत, विधानमंडल और संसद में प्रतिनिधित्व करने से ही वंचित हो गए, क्योंकि राज्य में उनकी आबादी बढ़ने के अनुपात में इन सदनों में उनके लिए सीटें आरक्षित नहीं हुईं। ये सामने आने के बाद भी केंद्र की राजग सरकार ने अपनी भूल सुधारने की कोशिश नहीं की। 3 मई, 2002 से 29 अगस्त, 2003 तक राज्य की सत्ता में तीसरी बार काबिज रही बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने भी आदिवासियों के जनप्रतिनिधित्व अधिकार की अनदेखी की। मायावती अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में शामिल हुई आदिवासियों की संख्या का रैपिड सर्वे कराकर उनके लिए विभिन्न सदनों में आबादी के आधार पर सीट आरक्षित करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार, परिसीमन आयोग और चुनाव आयोग को भेज सकती थीं, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। हालांकि उन्होंने कानून को राज्य में लागू कर दिया, जिससे आदिवासियों के जनप्रतिनिधित्व का संवैधानिक अधिकार सियासी और कानून के भंवर में फंस गया। 

29 अगस्त, 2003 को समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने राज्य की कमान संभाली। जिसके बाद सरकार ने राज्य के आदिवासी जिलों में विभागीय सर्वेक्षण कराया, जिसमें सामने आया कि राज्य में आदिवासियों की संख्या 2001 की जनगणना के 1,07,963 से बढ़कर 6,65,325 हो गई है। अगर केवल सोनभद्र की बात करें तो इस जिले में अनुसूचित जनजातियों की संख्या तीन लाख 78 हजार चार सौ बयालिस (विभागीय सर्वेक्षण-2003-04 के अनुसार) हो गई, जो सोनभद्र की आबादी के एक-चौथाई (करीब 26 प्रतिशत) से भी अधिक है। वहीं, सोनभद्र में अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल जातियों की आबादी 42 फीसदी (जनगणना-2001 के अनुसार) से घटकर 16 फीसदी हो गई। कई-कई ग्राम सभाओं में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या नगण्य हो गई। जिसकी वजह से आज भी करीब आधा दर्जन ग्रामसभाएं असंगठित हैं। दुद्धी विकास खंड का जाबर, नगवां विकास खंड का रामपुर, बैजनाथ, दरेव एवं पल्हारी ग्राम सभाएं इसका उदाहरण हैं, जहां वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हुई ग्राम प्रधानों एवं ग्राम पंचायत सदस्य की सीटों पर योग्य उम्मीदवारों की प्रयाप्त दावेदारी नहीं होने के कारण ग्राम पंचायत सदस्यों की दो तिहाई सीटें खाली हैं। इस वजह से इन ग्राम सभाओं का गठन नहीं हो पाया है, क्योंकि ग्रामसभा के गठन के लिए ग्राम पंचायत सदस्यों की संख्या दो तिहाई होना जरूरी है। इन ग्राम सभाओं में जिला प्रशासन द्वारा तीन सदस्यीय कमेटी का गठन कर विकास कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर नगवां विकासखंड का पल्हारी ग्रामसभा। 13 ग्राम पंचायत सदस्यों वाले पल्हारी ग्रामसभा में पंचायत चुनाव-2005 के दौरान कुल 1006 वोटर थे। इस गांव में अनुसूचित जाति का एक परिवार था। शेष अनुसूचित जनजाति एवं अन्य वर्ग के थे। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 12 ग्राम पंचायत सदस्य के पद खाली हैं, क्योंकि इस पर अनुसूचित जाति का कोई सदस्य चुनाव नहीं लड़ सका। ग्राम पंचायत सदस्यों के दो-तिहाई से अधिक पद खाली होने के कारण पल्हारी ग्रामसभा का गठन नहीं हो पाया है। जिला प्रशासन द्वारा गठित समिति विकास कार्यों को अंजाम दे रही है। इससे छुटकारा पाने के लिए गैर सरकारी संगठनों के साथ गैर राजनीतिक पार्टियां भी आदिवासियों की आवाज को सत्ता के नुमाइंदों तक पहुंचाने के लिए विभिन्न हथकंडे अपना रहे हैं। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव-2005 के दौरान भी आदिवासियों और कुछ राजनीतिक पार्टियों ने सरकार की नीतियों के खिलाफ आवाजें मुखर की थी। 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) ने आदिवासियों की इस आवाज को सत्ता के गलियारों तक पहुंचाने के लिए म्योरपुर विकासखंड के करहिया गांव में पंचायत चुनाव के दौरान समानान्तर बूथ लगाकर आदिवासियों से मतदान करवाया था। भाकपा(माले) के इस अभियान में 500 लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया। वहीं, राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा पंचायत चुनाव के दौरान लगाए गए बूथ पर मात्र 13 वोट पड़े। अनुसूचित जाति के दो परिवारों (दयाद)के सदस्यों में से एक व्यक्ति नौ वोट पाकर ग्राम प्रधान चुना गया। शेष सदस्य निर्विरोध सदस्य चुन लिए गये। आदिवासियों और भाकपा(माले) के इस अभियान ने राजनीतिक हलके में हडकंप मचाकर रख दी। इसके बाद भी केंद्र एवं राज्य की सरकार की नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसके बा भी समाजवादी पार्टी सरकार ने राज्य की त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडल और संसद में आदिवासियों की आबादी के अनुपात में सीटें आरक्षित कराने की पहल नहीं की। जिसके कारण उनकी सरकार में मंत्री और दुद्धी विधानसभा से करीब 27 साल तक विधायक रहे विजय सिंह गोंड़ त्रिस्तरीय पंचायतों समेत विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ने से वंचित हो गए। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका भी दायर की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद वे सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई। दूसरी तरफ आदिवासी बहुल सोनभद्र के आदिवासियों में अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए जागरूकता बढ़ी और वो लखनऊ से लेकर दिल्ली तक कूंच कर गए, लेकिन 2004 में सत्ता में आई कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार यानी संप्रग और 13 मई, 2007 में राज्य की सत्ता में आई मायावती सरकार ने उनकी आवाज को एक बार फिर नजर अंदाज कर दिया। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश का आदिवासी समुदाय अपने हक के लिए जिला प्रशासन से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अपनी आवाज पहुंचाता रहा। 

आदिवासियों की गैर-सरकारी संस्था प्रदेशीय जनजाति विकास मंच और आदिवासी विकास समिति ने त्रिस्तरीय पंचायतों में उचित प्रतिनिधित्व के संवैधानिक अधिकार की मांग को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका संख्या-46821/2010 दाखिल की, जिसपर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति सुनील अंबानी और काशी नाथ पांडे की पीठ ने 16 सितंबर, 2010 को दिए फैसले में साफ कहा है कि अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जाति समुदाय के लोगों का आबादी के अनुपात में विभिन्न संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार उनका संवैधानिक आधार है जो उन्हें मिलना चाहिए। पीठ ने राज्य सरकार के उस तर्क को भी खारिज कर दिया था कि "अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002" लागू होने के बाद राज्य में आदिवासियों की जनगणना नहीं है। पीठ ने साफ कहा कि 2001 की जनगणना में अनुसूचित जाति वर्ग और अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जातियों की जनगणना अलग-अलग कराई कई थी और इसका विवरण विकासखंड और जिला स्तर पर भी मौजूद है। जिसकी सहायता से अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में शामिल हुई जातियों की आबादी को पता किया जा सकता है। पीठ ने आदिवासियों के हक में फैसला देते हुए त्रिस्तरीय पंचायतों में सीटें आरक्षित करने का आदेश दिया, लेकिन चुनाव की अधिसूचना जारी हो जाने के कारण पंचायत चुनाव-2010 में उच्च न्यायालय का आदेश लागू नहीं हो पाया। इसके बाद भी राज्य की सत्ता में काबिज बहुजन समाज पार्टी और केंद्र की सत्ता में काबिज संप्रग सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के लिए कदम नहीं बढ़ाया। 

मौके को भांपते हुए विधानसभा दुद्धी के पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड़ कांग्रेस का दामन थामने की पृष्ठभूमि रचने लगे। जब कांग्रेस में शामिल होने की पटकथा विजय सिंह गोंड़ ने लिख ली तो उन्होंने अपने बेटे विजय प्रताप की ओर से 2011 के आखिरी महीने में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका संख्या-540/2011 दाखिल करवाई, जिसके बाद केंद्र सरकार की ओर से उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हक में रिपोर्ट भी दी गई। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय चुनाव आयोग को तलब किया। केंद्र सरकार, राज्य सरकार और केंद्रीय चुनाव आयोग को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 10 जनवरी, 2012 को आदिवासियों के हक में फैसला दिया। पीठ ने अपने फैसले में कहा कि त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडल और संसद में उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के लिए उनकी आबादी के आधार पर सीटों का आरक्षण सुनिश्चित किया जाए, लेकिन केंद्रीय चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया में दो से तीन माह का समय लगने का हवाला देकर फरवरी-मार्च में होने वाले विधानसभा चुनाव में सीटें आरक्षित करने से इंकार कर दिया। लेकिन यहां पर चुनाव आयोग ने जो बात सुप्रीम कोर्ट में बताई वो कांग्रेस के नुमाइंदों की पोल खोलती है जो खुद को दिल्ली में आदिवासियों का सिपाही बताते हैं।
 
चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उसके पास राष्ट्रपति के 2003 के आदेश के अलावा कोई भी अन्य आदेश अथवा निर्देश केंद्र सरकार या उत्तर प्रदेश सरकार से नहीं मिला है। और ना ही किसी आयोग का निर्देश उसे प्राप्त हुआ है। सवाल खड़ा होता है कि खुद को आदिवासियों का सबसे बड़ा हितैषी बताने वाली कांग्रेस और उसके युवराज राहुल गांधी पिछले एक दशक से क्या कर रहे थे जबकि उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के प्रतिनिधित्व का मुद्दा विधानमंडल, संसद, अनुसूचित जनजाति मंत्रालय, अनुसूचित जनजाति आयोग, प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ-साथ इलाहाबाद उच्च न्यायालय सरीखी संवैधानिक संस्थाओं में भी उठ चुका था।  उत्तर प्रदेश के आदिवासियों का ये मुद्दा मीडिया की सुर्खियों में भी छाया रहा। इतना ही नहीं, 10 जनवरी, 2008 को राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में अनुसूचित जनजाति मंत्रालय के सचिवों के साथ इस मुद्दे पर बैठक भी हुई थी, लेकिन कांग्रेस पार्टी और इसके नुमाइंदे इस मामले पर चुप रहे। 16 सितंबर, 2010 को हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी कांग्रेस वाली संप्रग सरकार और राहुल गांधी ने कोई कदम आगे नहीं बढ़ाया। 

जब आदिवासी बहुल दुद्धी विधानसभा के पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड से कांग्रेस का दामन पकड़ने का फैसला हो गया तो केंद्र की यूपीए सरकार उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हित का ढिंढोरा पिटने लगी और सुप्रीम कोर्ट में उनके पक्ष में रिपोर्ट भी दे दिया। इतना ही नहीं वो 2011 में हुई जनगणना के तहत उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति वर्ग के आंकड़े भी चुनाव आयोग को मुहैया कराने के लिए तैयार हो गई। ताकि विजय सिंह गोंड़ के रूप में दुद्धी विधानसभा से कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में एक विधायक मिल सके और बहुजन समाज पार्टी के गढ़ (दुद्धी, राबर्ट्सगंज, राजगढ़, चकिया, ओबरा, घोरावल विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र) में सेंध लगाई जा सके। इसे परवान चढ़ाने के लिए नाटकीय ढंग से विजय सिंह गोंड सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से पहले समाजवादी पार्टी को छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन कांग्रेस और विजय सिंह गोंड़ की रणनीति चुनाव आयोग के हलफनामे से बेकार हो गई। अब फरवरी-मार्च में होने वाले विधानसभा चुनाव में एक बार फिर उत्तर प्रदेश के आदिवासी अपने संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित होने जा रहे हैं। इसका एक ही कारण है। वह है वोटबैंक की सियासत, जिसे देखकर सत्ता के करीब मंडराने वाली सियासी पार्टियों के नुमाइंदे गिरगिट की तरह अपना रंग बदलते हैं। 

इस सियासी खेल में कांग्रेस पार्टी के नुमाइंदों समेत अन्य राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदों का असली चेहरा सामने आ गया है। सियासी भंवर के इस नजारे को देखकर उत्तर प्रदेश का आदिवासी समाज तिलमिला रहा है। राजनीतिक पार्टियों को शबक सिखाने के लिए आदिवासी समाज उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ रही राजनीतिक पार्टियों की गणित को गड़बड़ा सकता है। इसी गणित को मजबूत करने के लिए कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी 21 जनवरी, 2012 को  दुद्धी निर्वाचन क्षेत्र के मुख्यालय दुद्धी नगर गए थे। जहां उन्होंने विजय सिंह गोंड़ की अगुआई में आयोजित की गई कांग्रेस की सभा में आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए एक से बढ़कर एक कसीदे बढ़े, लेकिन आदिवासियों के दिलों में सालों से सुलग रही उपेक्षा की आग को शांत करने में नाकाम दिखाई दे रहे थे। लोगों की जुबान पर एक ही सवाल था कि कांग्रेस के युवराज ने राज्य की त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडल और संसद में उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के लिए उनकी सीटें आरक्षित करने के सवाल पर एक शब्द भी नहीं बोले। ना ही वनाधिकार कानून के तहत आदिवासी इलाकों में रहने वाले कोल, भील सरीखे अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोगों से 75 साल पुराना दस्तावेज मांगे जाने पर ही उन्होंने कुछ कहा। इतना ही नही, वे राहुल गांधी से बुंदेलखंड की तरह कैमूर क्षेत्र के आदिवासी बहुल जिलों के लिए किसी विशेष पैकेज अथवा योजना की भी आशा लगाए हुए थे, लेकिन इसपर भी उन्होंने (राहुल गांधी) ने कुछ नहीं बोला। इन हालातों में राहुल गांधी की दुद्धी सभा सोनभद्र के आदिवासियों समेत उत्तर प्रदेश के आदिवासियों की कसमसाहट को कितना ठंडा कर पाएगी, ये तो अभी भी भविष्य के गर्भ में है और मार्च में ही सामने आएगा। लेकिन जब आएगा तो चौंकाने वाला होगा।

मूल लेख स्त्रोत:-
द पब्लिक लीडर मीडिया ग्रुप, 
राबर्ट्सगंजसोनभद्रउत्तर प्रदेश
ई-मेल:thepublicleader@gmail.com, 
मोबाइल-09910410365

सोनभद्र के दुद्धी में चुनाव से पहले हारी कांग्रेस

written by Shiv Das

कांग्रेस उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र (अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित) में चुनाव से पहले ही हार गई है। निर्वाचन आयोग ने इस निर्वाचन सीट पर कांग्रेस की ओर से घोषित उम्मीदवार विजय सिंह गोंड़ का पर्चा खारिज कर दिया है। साथ ही निर्वाचन आयोग ने कांग्रेस पार्टी के डमी उम्मीदवार सुभाष बैंसवार का नामांकन भी कुछ तकनीकी कारणों की वजह से खारिज कर दिया है। अब इस विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस का कोई भी उम्मीदवार चुनाव मैदान में नहीं है। 

बता दें कि सोनभद्र में अनुसूचित जनजाति वर्ग के विजय सिंह गोंड़ ने चुनाव लड़ने के लिए लखनऊ के पते से अनुसूचित जाति का जाति प्रमाण-पत्र बनवाया था। मामला संज्ञान में आने के बाद लखनऊ के उप-जिलाधिकारी ने विजय सिंह गोंड़ का लखनऊ का जाति प्रमाण-पत्र निरस्त कर दिया। साथ ही उन्होंने इसकी सूचना सोनभद्र के निर्वाचन अधिकारी को फैक्स के माध्यम से दे दी। इसे आधार बनाते हुए जिला निर्वाचन अधिकारी ( रिटर्नेनिंग ऑफिसर) ने पूर्व विधायक एवं कांग्रेस उम्मीदवार विजय सिंह गोंड़ का नामांकन खारिज कर दिया। दुद्धी विधानसभा से करीब 27 साल तक विधायक रहे विजय सिंह गोंड़ का नामांकन खारिज होने के साथ ही कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का बहुजन समाज पार्टी के गढ़ (दुद्धी, ओबरा, राबर्ट्सगंज, घोरावल और चकिया विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र) में सेंध लगाने का सपना चकनाचूर हो गया है। जिसे पूरा करने के लिए कांग्रेस की यूपीए सरकार ने 2004 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद से ही उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के प्रतिनिधित्व के अधिकार को कानूनी दांवपेंच में फंसा रखा था। इतना ही नहीं, जब सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश के आदिवासियों की जीत हुई तो गांधी-नेहरू परिवार के युवराज राहुल गांधी ने 21 जनवरी, 2012 को दुद्धी नगर के टाउन हाल में पहली बार जनसभा कर इसका श्रेय लेने की भी कोशिश की। उन्होंने यहां के आदिवासियों से विजय सिंह गोंड़ को जीताकर कांग्रेस में विश्वास करने की अपील भी की। लेकिन चुनाव आयोग की शख्ती के कारण उनका सपना चुनाव से पहले ही टूट गया। साथ ही कांग्रेस की उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को छलने की नीति की पोल खुल गई, जिन्हें वो केवल सत्ता तक पहुंचने के लिए सियासी बिसात पर बिछे शतरंज का मोहरा ही समझती है। इस बात का प्रमाण पिछले एक दशक से अपने प्रतिनिधित्व के अधिकार के लिए लड़ रहे उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के संघर्ष के मामले में साफ दिखाई देता है। 

दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र की 75 फीसदी से ज्यादा आबादी आदिवासी है। इसके बाद भी यहां की विधानसभा अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। उत्तर प्रदेश में भी आदिवासियों की आबादी 10 लाख से अधिक हो चुकी है। हालांकि सरकार के कागजी पुलिंदों में ये सच्चाई सामने आऩी बाकी है क्योंकि2011 की जनगणना के आंकड़ों में अगर ये सच्चाई सामने आ गई होती तो उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को उनका लोकतांत्रिक अधिकार मिल गया होता। वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस मामले को सरकार से जीत चुके थे। सुप्रीम कोर्ट ने भी उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के जनप्रतिनिधित्व अधिकार पर 10 जनवरी को मुहर लगा दी। लेकिन देर से फैसला आने के कारण उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को फरवरी-मार्च में होने वाले विधानसभा चुनाव में एक बार फिर अपने प्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित होना पड़ रहा है। ऐसा होने के पीछे कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार की कारगुजारियां बहुत हद तक जिम्मेदार दिखाई देती हैं। 

अगर यूपीए सरकार की ओर से सही समय पर उनके अधिकारों की रक्षा के लिए पहल की गई होती तो उत्तर प्रदेश के वर्तमान विधानसभा चुनाव में अनुसूचित जनजाति के लिए दो सीटें आरक्षित हो सकती थीं, जिनमें से एक दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र होता। लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकारों ने ऐसा नहीं होने दिया। इसके रणनीतिकारों में इसके नुमाइंदों ने जानबूझकर देरी की। जिसका सुबूत उसकी अगुआई वाली यूपीए सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दी गई रिपोर्ट से मिलता है। 

उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के प्रतिनिधित्व अधिकार के मामले को लेकर गैर-सरकारी संगठन प्रदेशीय जनजाति विकास मंच और आदिवासी विकास समिति ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका संख्या-46821/2010 दाखिल की थी। इसमें उन्होंने त्रिस्तरीय पंचायतों में आदिवासियों को उचित प्रतिनिधित्व के लिए सीटें आरक्षित करने की मांग की थी। न्यायमूर्ति सुनील अंबानी और काशी नाथ पांडे की पीठ ने 16 सितंबर, 2010 को आदिवासियों के हक में फैसला दिया। इसमें साफ कहा कि अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जाति समुदाय के लोगों का आबादी के अनुपात में विभिन्न संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार उनका संवैधानिक आधार है। यह उन्हें मिलना चाहिए। पीठ ने राज्य सरकार के उस तर्क को भी खारिज कर दिया था कि "अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002" लागू होने के बाद राज्य में आदिवासियों की आबादी का सरकारी आंकड़ा नहीं है। पीठ ने साफ कहा कि 2001 की जनगणना में अनुसूचित जाति वर्ग और अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जातियों की जनगणना अलग-अलग कराई कई थी और इसका विवरण विकासखंड और जिला स्तर पर भी मौजूद है। इसकी सहायता से अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में शामिल हुई जातियों की आबादी को पता किया जा सकता है। पीठ ने त्रिस्तरीय पंचायतों में सीटें आरक्षित करने का आदेश दिया, लेकिन चुनाव की अधिसूचना जारी हो जाने के कारण पंचायत चुनाव-2010 में उच्च न्यायालय का आदेश लागू नहीं हो पाया। इसके बाद भी राज्य की सत्ता में काबिज बहुजन समाज पार्टी और केंद्र की सत्ता में काबिज संप्रग सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के लिए कदम नहीं बढ़ाया। जब विजय सिंह गोंड़ ने कांग्रेस में शामिल होने का फैसला कर लिया तो केंद्र की यूपीए सरकार की रणनीति के तहत उनके बेटे विजय प्रताप ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका संख्या-540/2011 दाखिल की। इसकी सुनवाई के दौरान कांग्रेस की यूपीए सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हक में रिपोर्ट दी। जबकि इससे पहले विजय सिंह गोंड़ की जनहित याचिका में यूपीए सरकार इसका विरोध कर चुकी है। 

राज्य सरकार और केंद्रीय चुनाव आयोग को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 10 जनवरी, 2012 को आदिवासियों के हक में फैसला दिया। पीठ ने अपने फैसले में कहा कि त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडल और संसद में उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के लिए उनकी आबादी के आधार पर सीटों का आरक्षण सुनिश्चित किया जाए, लेकिन केंद्रीय चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया में दो से तीन माह का समय लगने का हवाला देकर फरवरी-मार्च में होने वाले विधानसभा चुनाव में सीटें आरक्षित करने से इंकार कर दिया। लेकिन यहां पर चुनाव आयोग ने जो बात सुप्रीम कोर्ट में बताई वो कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार की पोल खोलती है। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उसके पास राष्ट्रपति के 2003 के आदेश के अलावा कोई भी अन्य आदेश अथवा निर्देश केंद्र सरकार या उत्तर प्रदेश सरकार से नहीं मिला है। और ना ही किसी आयोग का निर्देश उसे प्राप्त हुआ है। सवाल खड़ा होता है कि खुद को आदिवासियों का सबसे बड़ा हितैषी बताने वाली कांग्रेस और उसके युवराज राहुल गांधी पिछले एक दशक से क्या कर रहे थे। जबकि उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के प्रतिनिधित्व का मुद्दा विधानमंडल, संसद, अनुसूचित जनजाति मंत्रालय, अनुसूचित जनजाति आयोग, प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ-साथ इलाहाबाद उच्च न्यायालय सरीखी संवैधानिक संस्थाओं में भी उठ चुका था। इतना ही नहीं, 10 जनवरी, 2008 को राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में अनुसूचित जनजाति मंत्रालय के सचिवों के साथ इस मुद्दे पर बैठक भी हुई थी, लेकिन कांग्रेस पार्टी और इसके नुमाइंदे इस मामले पर चुप रहे। 16सितंबर, 2010 को हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी कांग्रेस वाली संप्रग सरकार और राहुल गांधी ने कोई कदम आगे नहीं बढ़ाया। 

दुद्धी विधानसभा के पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड से कांग्रेस का दामन पकड़ने का फैसला हो गया तो केंद्र की यूपीए सरकार उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हित का ढिंढोरा पिटने लगी और सुप्रीम कोर्ट में उनके पक्ष में रिपोर्ट भी दे दिया। इतना ही नहीं वो 2011 में हुई जनगणना के तहत उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति वर्ग के आंकड़े भी चुनाव आयोग को मुहैया कराने के लिए तैयार हो गई। ताकि विजय सिंह गोंड़ के रूप में दुद्धी विधानसभा से कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में एक विधायक मिल सके और बहुजन समाज पार्टी के गढ़ (दुद्धी, राबर्ट्सगंज,राजगढ़, चकिया, ओबरा, घोरावल विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र) में सेंध लगाई जा सके। इसे परवान चढ़ाने के लिए नाटकीय ढंग से विजय सिंह गोंड सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से पहले समाजवादी पार्टी को छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन कांग्रेस और विजय सिंह गोंड़ की रणनीति चुनाव आयोग के हलफनामे से बेकार हो गई। इसके साथ ही एक बार उत्तर प्रदेश के आदिवासी विधानसभा में अपनी आबादी के आधार पर प्रतिनिधित्व पाने से वंचित हो गए। हालांकि विजय सिंह गोंड़ ने हार नहीं मानी। उन्होंने लखनऊ के आवासीय पते पर वहां के राजस्व विभाग से अनुसूचित जाति का प्रमाण-पत्र हासिल कर लिया। इसको आधार बनाते हुए उन्होंने फरवरी-मार्च में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में दुद्धी निर्वाचन क्षेत्र से पिछले दिनों नामांकन दाखिल किया था जिसे इस साल की 30 जनवरी को निर्वाचन आयोग ने खारिज कर दिया है। 

निर्वाचन आयोग के इस कदम को जनसंघर्ष मोर्चा के राष्ट्रीय प्रवक्ता और ओबरा विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के उम्मीदवार दिनकर कपूर ने कांग्रेस की गलत नीतियों का परिणाम करार दिया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने आदिवासियों का इस्तेमाल किया है। उसने आदिवासियों के साथ धोखाधड़ी करने की कोशिश की है जिसके लिए उसे माफी मांगनी चाहिए। वही भारतीय जनता पार्टी के सोनभद्र अध्यक्ष धर्मवीर तिवारी ने दोहरा लाभ लेने के लिए धोखाखड़ी करने वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर कड़ी कार्रवाई करने की मांग की। उन्होंने कहा कि कांग्रेस और विजय सिंह गोंड़ ने जनता के साथ-साथ चुनाव आयोग को भी गुमराह करने की कोशिश की है। बहुजन समाज पार्टी के जिला महासचिव निशांत कुशवाहा ने कहा कि कांग्रेस की गुमराह करने वाली नीति की पोल खुल गई है। साथ ही विजय सिंह गोंड़ की भी नीति उजागर हो गई है। जिले के आदिवासियों को विजय सिंह गोंड़ की स्वार्थी राजनीति को समझकर सही उम्मीदवार का चयन करना चाहिए।

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शासन की कारगुजारियों का परिणाम है सोनभद्र की घटना


written by Shiv Das 
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में सोमवार को पत्थर की एक खदान धंस गई। इससे करीब एक दर्जन लोगों की मौत हो गई जबकि कई लोग घायल हो गए। इस घटना ने एक बार फिर सोनभद्र में दशकों से हो रहे खनन, जिला प्रशासन और सरकार की भूमिका पर सवाल खड़ा कर दिया है। वास्तव में सोमवार को हुई घटना कोई दुर्घटना नहीं है। यह एक निरंकुश प्रशासन और सरकार की अनदेखी का परिणाम है जिसे गरीबों के खिलाफ पूंजीपतियों और सामंतवादियों की साजिश कहा जा सकता है। 
सोनभद्र के जिस इलाके (ओबरा का बिल्ली-मारकुंडी) में यह हादसा हुआ है, वह पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिहाज से अतिसंवेदनशील क्षेत्र में आता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट भी इस इलाके को खनन के लिहाज से अतिसंवेदनशील करार दे चुका है। इसके बाद भी सोनभद्र के इस इलाके में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, जिला प्रशासन और सरकार की शह पर अवैध खनन का गोरखधंधा पिछले एक दशक से ज्यादा समय से चल रहा है। प्रशासन की इस कारगुजारी को लेकर स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कई बार आंदोलन भी किया, लेकिन सरकार की निरंकुशता के कारण उनका आंदोलन परवान नहीं चढ़ सका। समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने भी सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली के विभिन्न इलाकों में हो रहे अवैध खनन और उससे होने वाली हानि के बारे में खबरें प्रकाशित की। सामाजिक कार्यकर्ताओं और भुक्तभोगियों ने राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार के विभिन्न नुमाइंदों से लिखित शिकायत की। विभिन्न न्यायालयों में याचिका लगाई। लेकिन सरकार के नुमाइंदों ने उत्तर प्रदेश के इस इलाके में हो रहे अवैध खनन को रोकने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया। परिणामस्वरूप, इस इलाके में अवैध खनन का कारोबार बढ़ने लगा। इसका फायदा उठाकर आस-पास के खनन माफियाओं ने यहां की खनिज संपदा को नेस्तोनाबूत करने के लिए अपना राज स्थापित करना शुरू कर दिया जो मौत का कुआं बन चुकी पत्थर की खदानों के रूप में सामने आ रहा है। एक तरफ यहां की पत्थर की खदानें गरीब आदिवासियों और दलितों की जान ले रही हैं तो दूसरी ओर अवैध क्रशर प्लांटों से होने वाला प्रदूषण लोगों को अंदर से खोखला बना रहा है। टीबी, दमा सरीखे रोगों की चपेट में आकर सोनभद्र के बाशिंदे मौत को गले लगा रहे हैं। इसके अलावा सोनभद्र की संपदा को अन्य जिलों तक ले जाने वाले भारी वाहन वाराणसी-शक्तिनगर राजमार्ग पर लोगों की जान ले रहे हैं। जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट को इसे किलर रोड की संज्ञा देनी पड़ी। इसके बाद भी सोनभद्र के खनन क्षेत्र में मौत की सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। सोमवार की घटना को दुर्घटना इसलिए भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इसकी आशंका सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडिया ने आज से करीब एक साल पहले ही जता दी थी। इसे लेकर उन्होंने जिला प्रशासन, राज्य सरकार, केंद्र सरकार और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से गुहार भी लगाई दी। 

ओबरा निवासी विजय शंकर यादव ने बकायदा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से इस संबंध में लिखित शिकायत की थी। उस शिकायत में मेरे द्वारा साप्ताहिक चौथी दुनिया में लिखी गई रिपोर्ट विंध्य की खदानें बनी मौत का कुआं का जिक्र भी किया था। इसके बाद भी सरकार की ओर से पत्थर की इन अवैध खदानों को बंद करने की कोशिश नहीं की गई। ना ही सरकार की सहमति से संचालित हो रही पत्थर की खदानों में श्रम कानूनों के मानकों को लागू कराने पर जोर दिया गया। उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय कार्यालय ने तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए सैकड़ों अवैध क्रशर प्लांटों के संचालन के लिए सहमति-पत्र जारी कर दिया। इसके बाद सोनभद्र में अवैध खनन क्षेत्र का दायरा बढ़कर सुकृत तक पहुंच गया। जिला प्रशासन और सरकार के नुमाइंदों की कारस्तानियों ने सोनभद्र के मूल निवासियों का जीना दुभर कर दिया है, जिसकी परिणति सोमवार को पत्थर की खदान के धसान से सामने आई है। पत्थर की इस खदान में खनन को रोकने के लिए यहां के बाशिंदों ने जिला प्रशासन से विशेष रूप से गुहार लगाई थी। जिसमें उन्होंने यहां से गुजरने वाले हाईटेंशन तार के पोल की असुरक्षा के साथ-साथ खदान में काम करने वाले लोगों की असुरक्षा की आशंका करीब एक साल पहले जताई थी। सोमवार को उनकी आशंका सच साबित हुई। अगर जिला प्रशासन समय पर इस खदान को बंद करा दिया होता तो सोमवार की यह घटना टल सकती थी और दर्जनों लोगों की जान बचाई जा सकती थी। सोनभद्र के खनन क्षेत्र की पत्थर की खदानों में पहले भी कई घटनाएं हो चुकी हैं जिसमें सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं। लेकिन जिला प्रशासन और पुलिस प्रशासन की मिलीभगत से ये मामले लोगों के सामने नहीं आ पाए। अगर खनन क्षेत्र में होने वाली मौतों की मीडिया रिपोर्टों पर गौर करें तो सोनभद्र के खनन क्षेत्र में हर दिन एक आदमी की औसत से लोगों की मौत होती है। इसमें अधिकतर लोग आदिवासी और दलित होते हैं। इसके बावजूद पत्थर की खदानों में मानकों की अनदेखी रुकने का नाम नहीं ले रही है। अगर अब भी समाज के बुद्धिजीवी अवैध खनन और मानकों की अनदेखी के खिलाफ आवाज नहीं बुलंद कर पाए तो वह दिन दूर नहीं जब सोनभद्र आदिवासियों और दलितों का कब्रगाह बन जाएगा।

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अवैध खनन का खूनी खेलः जिम्मेदार कौन?

written by Shiv Das 
(सोनभद्र में सालों से अवैध खनन का खूनी खेल चल रहा है, जिसकी परिणति बीते दिनों बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र में एक पत्थर की अवैध खदान धंसने और करीब एक दर्जन लोगों की मौत से सामने आई। हालांकि जिला प्रशासन 10 लोगों की मौत की ही पुष्टि कर रहा है। लेकिन सवाल खड़ा होता है कि इस खूनी खेल के लिए जिम्मेदार कौन है? इस सवाल का जवाब बहुत ही साफ है, लेकिन लोकतंत्र के सभी स्तंभों के गैरजिम्मेदाराना रवैये की वजह से इस सवाल का जवाब अब भी अनुत्तरित है और भविष्य में भी अनुत्तरित रहने की संभावना है। द पब्लिक लीडर सोनभद्र में अवैध खनन के खूनी खेल की साजिश का एक-एककर पर्दाफाश करने जा रहा है जो पूरी तरह से तथ्यों पर आधारित होगा। सबसे पहले मैं आपको सोनभद्र के अवैध खनन के खूनी खेल की एक तस्वीर पेश कर रहा हूं जो हाल ही में देखने को मिला....)
27 फरवरी, 2012 । उत्तर प्रदेश का सोनभद्र जिला। यहां ओबरा थाना क्षेत्र के बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र में हर दिन की तरह इस दिन भी लोगों की दिनचर्या चल रही थी। हर दिन मौत की दास्तां लिखने वाले इस खनन क्षेत्र में खून और पसीना बहाने वाले लोग अपने आसियानों से निकलकर मौत की कुआं बन चुकी पत्थर की खदानों में पहुंच चुके थे, जिनमें कुछ खदान संचालक, मेठ, वाहन चालक और दिहाड़ी मजदूर शामिल थे। इनमें कई सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली के थे तो कई इसके पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के सीधी और सिंगरौली जिले के थे। इसके अलावा पत्थर की इन खदानों में छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार के भी लोग काम करने के लिए आए थे। लोगों की मौत का फलसफा लिखने वाले बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र की पत्थर की खदानों में काम करने वाले किसी भी शख्स को यह अंदेशा नहीं था कि आज का दिन इस इलाके के काले इतिहास में हुईं सभी दुर्घटनाओं को पीछे छोड़ देगा। 

पूरे इलाके की पत्थर की खदानों में संचालकों के इशारे पर दोपहर बाद एक-एककर विस्फोट किया गया, जो प्रायः 12 बजे से तीन बजे के बीच होता है। ऐसा ही एक विस्फोट बिल्ली स्थित शारदा मंदिर के पीछे स्थित एक पत्थर की खदान में भी पहाड़ी को तोड़ने के लिए किया गया। इससे पूरी पहाड़ी दहल उठी। चारों तरफ विस्फोटकों के धमाके से पूरे खनन क्षेत्र में कुहासा छा गया। चारों तरफ धूल ही धूल दिखाई देना लगा। धमाकों की आवाज थमने के बाद धीरे-धीरे धूल का यह कुहासा छंट गया। पत्थर की खदानों में लोग अपने-अपने काम में लीन हो गए। पत्थर और गिट्टी को क्रशर प्लांट और अन्य गंतव्य तक ले जाने के लिए ट्रैक्टरों और ट्रकों का काफिला मौत का कुआं बन चुकी पत्थर की खदानों में पहुंच गए। वाहनों पर लदाई करने वाले मजदूर भी अपने परिवार के साथ इन गहरी पत्थर की खदानों में पहुंच चुके थे। इनमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे। इन मजदूरों में आदिवासी और दलित समुदाय की संख्या हर दिन की तरह आज भी अधिक थी। लोग अपने कामों में लग गए। 

कुछ ऐसा ही नजारा बिल्ली के शारदा मंदिर के पीछे स्थित पत्थर की एक खदान का भी था। करीब 50 फीट गहरी इस खदान में लोग अपने काम में मशगूल थे। शाम को करीब साढ़े पांच बजे अचानक इस खदान में काम कर रहे लोगों पर पहाड़ी का एक टीला गिर पड़ा, जिससे इस खदान में चीखें सुनाई देने लगीं। आस-पास की खदानों में काम कर रहे लोग चीखें सुनकर खदान की ओर दौड़े। यहां का मंजर देख लोगों के होस उड़ गए। किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। 

कुछ देर बाद लोग मलबे के नीचे दबे लोगों की चीख सुनकर उनकी ओर दौड़े और उन्हें बाहर निकालने की कोशिश करने लगे। इस बात की खबर जंगल में लगी आग की तरह पूरे खनन क्षेत्र में फैल गई। लोगों ने इस बात की सूचना जिला प्रशासन को दी। करीब दो घंटे बाद मौके पर पहुंची पुलिस और प्रशासन के नुमाइंदों ने मलबे के नीचे दबे शव को निकालना शुरू किया। एक-एक शव को निकलता देखकर लोगों की आंखे नम होने लगी। साथ ही इस आशंका के साथ उनके दिल की धड़कने भी बढ़ने लगी कि कहीं इस मलबे के नीचे मेरे परिवार का कोई सदस्य तो नहीं है। 

फिलहाल 27 फरवरी को देर रात चले बचाव कार्य में छह शवों को मलबे से बाहर निकाला गया और कई घायल लोगों का उपचार किया गया। कुछ घायल लोगों को उपचार के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया। किसी तरह ये काली रात कट गई। एक-एककर 4 मार्च तक 10 शव मलबे से बाहर निकाले जा चुके थे जबकि कई लोग गंभीर रूप से घायल हैं। इस खदान के पास की खदानों में काम करने वाले लोगों की बातों पर विश्वास करें तो मरने वाले लोगों की संख्या और अधिक हो सकती है क्योंकि इस खदान में करीब दो दर्जन लोग काम कर रहे थे। फिलहाल जिला प्रशासन की ओर से 10 लोगों के मरने की पुष्टि की गई है जिनमें सोनभद्र के मारकुंडी निवासी सोमारू का 23 साल का बेटा राजकुमार भी शामिल है। 

इसके अलावा मध्य प्रदेश के सीधी जिले के पिहलहा गांव निवासी शिव प्रसाद साकेत पुत्र बाबू लाल, दरिया गांव निवासी राम सुमिरन साकेत पुत्र बैठाले, धर्मदास साकेत पुत्र राम सुमिरन, राजू साकेत पुत्र बब्बन साकेत, पप्पू साकेत पुत्र बब्बन साकेत, उमरिया गांव निवासी राम प्रकाश गोंड़ पुत्र तेजभान, शिवनाथ गोंड़ पुत्र श्यामलाल गोंड़, सियावती पत्नी शिवनाथ गोंड़, मानसिंह पुत्र जगन्नाथ गोंड़ आदि भी मरने वालों में शामिल हैं। गंभीर रूप से घायल दो व्यक्तियों को वाराणसी स्थित एक अस्पताल में भर्ती कराया गया है। इनमें से एक का नाम कैस पुत्र मंधारी है जो मध्य प्रदेश के सीधी जिले के सिपामहा का निवासी है। 

जिला प्रशासन ने मामले में 16 लोगों के खिलाफ विभिन्न कानूनों के तहत मुकदमा दर्ज किया है, जिसमें से दो की गिरफ्तारी भी हो चुकी है। जिन लोगों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ है उनमें राजा राम यादव, राज बहादुर, धीरज जायसवाल, शिव शरण, पप्पू पानी, फौजदार सिंह, टम्पू गुप्ता, रोहित मेहरोत्रा, पीके सिंह, राम नारायण यादव, सुंदर मिश्रा, पिंटू पटेल, सरोज चौधरी, मनोज चौधरी, सच्चिदानंद तिवारी, अनिल मौर्या आदि का नाम शामिल है। इनमें से करीब आधा दर्जन लोग अपने वाहनों पर प्रेस लिखवाकर सफर करते थे। इसके अलावा पुलिस प्रशासन ने ओबरा के थाना प्रभारी समेत तीन पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया है। साथ ही जिला अधिकारी विजय विश्वास पंत ने खान विभाग के दो सर्वेयरों को भी निलंबित कर दिया है और जिला खान अधिकारी एके सेन के निलंबन के लिए शासन को सिफारिश भेज दी है। इसके अलावा जिला प्रशासन ने मामले की जांच अपर जिलाधिकारी वेदपति मिश्र सौंप दी है। उधर, वन विभाग ने कार्रवाई करते हुए इलाके के डिप्टी रेंजर सीताराम और वनकर्मी टीपी सिंह को निलंबित कर दिया है। प्रशासन की ओर से मृतकों के परिजनों को एक-एक लाख रुपये का मुआवजा दिया गया है। 

अब सवाल उठता है कि क्या प्रशासन की ओर से मामले में की गई कार्रवाइयां पर्याप्त हैं। अगर नहीं तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या इस घटना के लिए जिम्मेदार नौकरशाहों और सफेदपोशों के खिलाफ कार्रवाई हो पाएगी? वास्तव में यह एक दुर्घटना नहीं गणहत्या है जिसकी साजिश राज्य के नौकरशाहों और सफेदपोशों ने मिलकर रची थी और इस साजिश के खिलाफ उठने वाली समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों और कुछ पत्रकारों की आवाज को या तो नजरअंदाज कर दिया था, या फिर दबा दिया गया था।

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खनन मजदूरों के सीने को छलनी कर रहा बारूद!


Written By Shiv Das

देश के आदिवासी और दलित मजदूर इन दिनों पूंजीपतियों, सफेदपोशों और नौकरशाहों की एक नई साजिश का शिकार हो रहे हैं जिसकी बुनियाद मौतों की दास्तां लिखने वाले बारूद से तैयार की गई है। या यूं कहें कि सामंती ताकतें आदिवासियों और दलितों के सीने में बारूद ठूंस रही हैं, जिसकी चपेट में आकर उनका सीना (फेफड़ा) छलनी हो रहा है और वे मौत को गले लगा रहे हैं। चाहे उड़ीसा की नियमगिरि और कालाहांडी की पहाड़ियां हों या फिर राजस्थान के अलवर की पहाड़ियां। झारखंड का कोयला खनन क्षेत्र हो या उत्तर प्रदेश की विंध्य और कैमूर की पहाड़ियां। हर जगह खनन मजदूरों के रूप मौजूद आदिवासियों और दलितों के सीने में बारूद के धुएं का जहर ठूंसा जा रहा है। वे टीबी (क्षय रोग), दमा और कैंसर सरीखे खातक रोगों का शिकार होकर इस दुनिया विदा कह रहे हैं। कभी-कभी वे उस चक्रव्यूह का सीधे शिकार हो जाते हैं जो बारूद के ढेर पर पूंजीपतियों, सफेदपोशों और भ्रष्ट नौकरशाहों ने रचा है। उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल सोनभद्र जिले में करीब एक दर्जन मजदूरों की अप्रत्यक्ष हत्या (जिसे प्रशासन के नुमाइंदे दुर्घटना करार दे रहे हैं) ऐसे ही चक्रव्यूह की देन है। इसके अलावा राजस्थान के अलवर, झारखंड के धनबाद, मध्य प्रदेश के बैढ़न, छत्तीसगंढ़ के दंतेवाड़ा, महाराष्ट्र के विदर्भ और गढ़चिरौली, उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खिरी, सोनभद्र, मिर्जापुर, चित्रकूट, उड़ीसा के नियमगिरि और कालाहांडी, कर्नाटक के बेल्लारी जिलों में मौत का ऐसा ही खेल खेला जा रहा है। इस पूरे खेल की बिसात ही बारूद के ढेर से तैयार की गई है जिसकी सच्चाई कैमूर वन क्षेत्र की पहाड़ियों में फैले पूंजीपतियों के अवैध खनन कारोबार से बखूबी समझा जा सकता है। 

कैमूर वन क्षेत्र की पहाड़ियां उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, मिर्जापुर, मध्य प्रदेश के सिंगरौली, सीधी, झारखंड के पलामू और गढ़वा, बिहार के भभुआ और कैमूर जनपदों तक फैली हैं जो खनिज संपदा से भरी-पड़ी है। इन इलाकों में कोयला, डोलो स्टोन, सैंड स्टोन, लाइम स्टोन, बालू और मोरम सरीखे खनिजों की भारी तादात है, जिसकी वजह से इन इलाकों में डोलो स्टोन, कोयला, सैंड स्टोन, लाइम स्टोन, बालू और मोरम का काम पिछले चार दशक से भी अधिक समय से चल रहा है। केवल सोनभद्र की बात करें तो पिछले डेढ़ दशक के दौरान यहां अवैध खनन और मानकविहीन स्टोन क्रशर प्लांटों की संख्या में जमकर इजाफा हुआ है, जिसकी वजह से इस जिले में बारूदी विस्फोटों की हजारों आवाज हर दिन सुनाई देती है। इन विस्फोटों को अंजाम देने के लिए श्रम कानूनों का भी पालन नहीं किया जाता है। सोनभद्र के बारी, डाला, बिल्ली-मारकुंडी, सुकृत आदि खनन क्षेत्रों में मानकविहीन स्टोन क्रशर प्लांटों के संचालन के लिए खुलेआम एयर (प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ पॉल्यूशन) एक्ट-1981 के निर्देशों की जमकर धज्जियां उड़ाई जाती हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अपनी जांच रिपोर्ट में इसकी पुष्टि भी कर चुका है। 

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों की एक जांच टीम ने मध्य प्रदेश के सिंगरौली और सोनभद्र के खनन क्षेत्रों का दौरा किया था, जिसके दौरान उन्होंने इस इलाके में संचालित मानकविहीन स्टोन क्रशर प्लांटों पर चिंता जाहिर की थी। टीम के एक सदस्य की मानें तो सोनभद्र के खनन क्षेत्र में संचालित हो रहे स्टोन क्रशर प्लांटों को शीघ्र बंद कर देना चाहिए क्योंकि यहां कोई भी स्टोन क्रशर प्लांट पर्यावरण संरक्षण के मानकों को पूरा नहीं करते हैं। 

स्टोन क्रशर प्लांट के संचालन के लिए आवश्यक दिशा निर्देशों पर गौर करें तो जिस स्थान पर स्टोन क्रशर प्लांट संचालित होता है, वह स्थान चारों तरफ से चहारदीवारी से घिरा होना चाहिए। इस इलाके के 33 फीसदी भाग पर चहारदीवारी से पांच अथवा 10 मीटर की चौड़ाई पर चारों तरफ पौधे लगे होने चाहिए। स्टोन क्रशर प्लांट में लगी जालियां टिन शेड से ढकी होनी चाहिए। प्लांट से निकलने वाले मैटिरियल (प्रोडक्ट) से उड़ने वाले धूल को हवा में घुलने से रोकने के लिए उसके चारों तरफ पानी के फव्वारों की व्यवस्था होनी चाहिए। इसके अलावा स्टोन क्रशर प्लांट की चहरादीवारी के चारों ओर पानी के भव्वारे लगे होने चाहिए, जिससे हवा में एसपीएम (सस्पेंडेड पर्टिक्यूलेट मैटर्स) और आरएसपीएम (रिस्पाइरल सस्पेंडेड पर्टिक्यूलेट मैटर) न घुल सके। स्टोन क्रशर प्लांट से मैटिरियल को ढोने वाले वाहनों के खड़े होने वाली जगह और गुजरने वाले मार्ग तारकोल, गिट्टी अथवा बोल्डर के बने होने चाहिए। सोनभद्र के खनन क्षेत्र में संचालित होने वाला कोई भी क्रशर प्लांट उपरोक्त मानकों को पूरा नहीं करता है, जिससे खनन क्षेत्र के वातावरण में एसपीएम (सस्पेंडेड पर्टिक्यूलेट मैटर्स), आरएसपीएम (रिस्पाइरल सस्पेंडेड पर्टिक्यूलेट मैटर), सल्फर डाई ऑक्साइड, एनओएक्स आदि हानिकारक तत्वों की मात्रा सामान्य से कहीं ज्यादा हो चुकी है। इस वजह से बिल्ली-मारकुंडी, बारी, मीतापुर, डाला, पटवध, करगरा, सुकृत, खैरटिया, ओबरा, चोपन, सिंदुरिया, गोठानी, रेड़िया, अगोरी समेत कई क्षे्त्रों के लोग टीबी यानी क्षय रोग और दमा जैसे घातक बीमारियों की चपेट में हैं।

पर्यावरणविद् और प्रदूषण नियंत्रण के लिए काम कर रहे विशेषज्ञों की मानें तो खनन क्षेत्र के वातावरण की हवा में एसपीएम (पत्थर क्रश करते समय निकलने वाला धूल का कण) की औसत मात्रा 2000 मिलीग्राम प्रति क्यूबिक नार्मल मीटर (एमजीपीसीएनएम) पाई गई है जो शुद्ध हवा में पाए जाने वाले एसपीएम की सामान्य मात्रा 600 एमजीपीसीएनएम से कहीं ज्यादा है। वहीं यहां की हवा में आरएसपीएम (हवा में घुले पत्थर के कण जो नंगी आंखों से दिखाई नहीं देते हैं) की मात्रा औसतन 1000 एमजीपीसीएनएम पाई गई है, जो सामान्य से कही ज्यादा है। विशेषज्ञों की मानें तो आरएसपीएम बहुत ही घातक है जो सांस लेते समय फेफड़ों के अंदर पहुंच जाता है। धीरे-धीरे ये फेफड़े को छलनी करने लगता है और लोग टीबी, दमा और कैंसर सरीखे घातक रोगों का शिकार हो जाते हैं। आरएसपीएम की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सोनभद्र के खनन क्षेत्र में रोगियों की संख्या अन्य क्षेत्रों की तुलना में कहीं ज्यादा है। जिला स्वास्थ्य विभाग के एक कर्मचारी की बातों पर यकीन करें तो संयुक्त जिला चिकित्सालय में खनन क्षेत्र से हर महीने 20 से 25 व्यक्ति टीबी का इलाज कराने आते हैं। जिला क्षय रोग विभाग, सोनभद्र के आंकड़ों पर गौर करें तो 2005 से 2010 के बीच यानी पांच साल के दौरान करीब 100 लोगों की मौत क्षय रोग यानी टीबी के कारण हुई। जबकि इस दौरान विभाग में 6871 लोगों का पंजीकरण क्षय रोग के इलाज के लिए किया गया था। इस दौरान विभाग में कुल 29272 लोगों की जांच की गई थी। या यूं कहें कि सोनभद्र के जिला क्षय रोग विभाग में जांच कराने वाला हर चौथा व्यक्ति क्षय रोग से पीड़ित था। क्षय रोगियों की संख्या यहां हर साल बढ़ रही है।

जिला क्षय रोग विभाग, सोनभद्र के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2005 में कुल 2035 लोगों ने क्षय रोग से पीड़ित होने की आशंका जाहिर करते हुए जांच कराई थी। इनमें 498 लोग इस रोग से पीड़ित मिले जबकि इस दौरान क्षय रोग से पीड़ित 12 लोगों की मौत हो गई थी। एक साल बाद यानी वर्ष 2006 में 4458 लोगों ने क्षय रोग से पीड़ित होने की आशंका में जांच कराई थी। इनमें 840 लोग क्षय रोग से पीड़ित मिले जबकि इस दौरान 23 क्षय रोगी मौत की नींद सो गए। यूं कहें कि एक साल के अंदर क्षय रोगियों की संख्या दोगुने के करीब पहुंच गई। क्षय रोग से मरने वालों की संख्या भी इस अवधि के दौरान दोगुनी हो गई। वर्ष 2007 में 6299 लोगों ने क्षय रोग से पीड़ित होने की आशंका में जांच कराई। इनमें से 1391 लोग इस रोग से पीड़ित मिले जबकि इस दौरान 22 क्षय रोगियों ने जीवन की अंतिम सांस ली। वर्ष 2008 में क्षय रोग से मरने वालों की संख्या 28 हो गई जबकि क्षय रोग की आशंका जाहिर करते हुए इसकी जांच कराने वाले 7292 में से 1800 लोग क्षय रोग से पीड़ित मिले। वर्ष 2009 में 7482 लोगों ने इस मामले में जांच कराई जिसमें से 1881 लोग क्षय रोगी मिले। इस तरह से सोनभद्र में हर साल क्षय रोगियों और इससे मरने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा है। 

अगर जिले के आदिवासी बहुल इलाकों की बात करें तो म्योरपुर इलाके में क्षय रोगियों की संख्या एक लाख आबादी पर सबसे अधिक है। इस इलाके के अधिकतर लोग बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र में मजदूरी का काम करते हैं। इसके बाद आदिवासी और दलित बहुल घोरावल इलाका आता है जबकि चोपन (बिल्ली-मारकुंडी) इलाका तीसरे पायदान पर है। इन इलाकों के अधिकतर गरीब आदिवासी और दलित बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र समेत विभिन्न इलाकों में स्थित पत्थर की खदानों में काम करते हैं। 

कुछ ऐसा ही हालात मिर्जापुर जिले का भी है। यहां के जिला क्षय रोग विभाग के आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2008 में 15890 लोगों ने क्षय रोग की आशंका जाहिर करते हुए सेहत की जांच कराई थी। इनमें 1961 लोग क्षय रोग से पीड़ित मिले। जबकि 2009 में ये आंकड़ा बढ़कर 1991 हो गया। इस दौरान विभाग में कुल 16068 लोगों ने सेहत की जांच कराई थी। इन दो सालों में 137 क्षय रोगियों की मौत हुई। इन रोगियों में तीन -चौथाई अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के थे। इन आंकड़ों से साफ जाहिर है कि उत्तर प्रदेश के सोनभद्र और मिर्जापुर समेत देश के विभिन्न खनन क्षेत्रों में किस तरह से गरीब आदिवासी और दलित मजदूरों को मौत के मुंह में ढकेला जा रहा है। इसके लिए कहीं न कहीं, खनन क्षेत्रों में प्रयोग होने वाला बारूद जिम्मेदार है जो गरीब खनन मजदूरों के सीने (फेफड़े) को छलनी कर रहा है। इसके अलावा खनन माफिया एक साजिश के तहत खनन क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों को, ना ही सुरक्षा यंत्र मुहैया कराते हैं और ना ही उनका बीमा कराते है जिसके कारण गरीब आदिवासी और दलित खनन मजदूर बारूदी विस्फोटों और पहाड़ियों की धंसान की चपेट में आकर मौत को गले लगाते रहते हैं। खनन माफियाओं की इस करतूत में सामंतवादी सोच वाले नौकरशाह और पूंजीपति बढ़चढ़कर सहयोग करते हैं। 

अब सवाल उठता है कि पूंजीपतियों, खनन माफियाओं और सामंतवादी सोच वाले भ्रष्ट नौकरशाहों की इस साजिश से कैसे निपटा जाए? क्या इस वर्तमान व्यस्था पर छोड़ देना चाहिए? क्या वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था देश के विभिन्न खनन क्षेत्रों में काम करने वाले गरीब आदिवासी और दलित मजदूरों को उनका मानव और लोकतांत्रिक अधिकार दिला पाएगा? समाज के सबसे निचले तबके के इस हालात के लिए कौन जिम्मेदार है? जो जिम्मेदार हैं उन्हें सजा कब और कैसे मिलेगी? और इस सजा को कौन निर्धारित करेगा? इन सवालों का जवाब बारूद के ढेर पर बिछे मौत के शतरंजी बिसात का शिकार हुए प्यादों के परिजन आज भी ढूंढ रहे हैं, जिसका जवाब एक दिन हमें ही देना होगा। कभी बेटे और बेटियों के सवालों के जवाब के रूप में तो कभी वातानुकूलित कमरों में होने वाली गोष्ठियों के वक्ता के रूप में।

मूल लेख स्त्रोत:-
द पब्लिक लीडर मीडिया ग्रुप, 
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