बुधवार, 31 अगस्त 2011

अपनी संस्कृति को मरते हुए देख रहे हैं।


भारत के समृद्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को और भी ज्यादा मात्रा में पल्लवित और पुष्पित करने में लोक कलाओं की एक महति भूमिका रही है। इसका कारण यहां की समृत संास्कृतिक विरासत और सैकड़ों की संख्या में जातियों और जनजातियों का यहां अवस्थित होना सबसे बड़ा कारण है। लेकिन आज सोनभद्र की घसिया जनजाति भारत के सामाजिक बटवारे और अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई का एक जीवन्त उदाहरण बन चुकी हैै। 

सोनभद्र और इसके आस-पासके क्षेत्रोंं में करीब ५० से ५५ हजार की संख्या में रहने वाली घसिया जनजाति  छोटे-छोटे कबिलों और गांवों में स्थायी-अस्थायी रूप से निवास करती है जिसकी लोक कला में करमा नृत्य एक विशेष स्थान रखता है यह नृत्य करम देवता को समर्पित है। इन्होने इस नृत्य का नजारा देश के महान विभूतियों के सामने पेश किया है लेकिन आज यह जनजाति हासिए की जिन्दगी जीने को मजबूर है और इनके पास फक्काकशी के अलावा कोई विकल्प नहीं है। 

ऐसी सामाजिक विडम्बना सिर्फ भारत वर्ष में ही सम्भावित है जहां लोक कलाकारों को सिर्फ मरने के लिए छोड़ दिया गया है आज घसिया जनजाति के लोग अपने हजारों नौनिहालों को अपनी आंखों के सामने मरते हुए देख चुके हैं जिसकी जीती-जागती तस्वीर यह शिलापटिटका है जिसे गैर सरकारी संस्था ने कुपोषण और भूख से मरे हुए बच्चों की याद में लगवाया है। यह शिला पटिटका जहां एक तरफ भूख से मरे हुए बच्चों को याद करके सामाज के लिए एक नजिर पेश कर रही है वहीं दूसरी तरफ सामाजिक र्दुव्यवस्थाओं को चिढ़ा भी रही है।

जहां प्रशासन और प्रशासन के स्तर की बात करें तो यह मानने को कत्तई तैयार नहीं है कि इनकी मौतें भूख से हुई है। बावजूद इसके यह बात जरूर कहते हैं कि सरकार इनके पुर्नवास के लिए विचार कर रही है और समय-समय पर कार्यक्रमों के द्वारा मंच भी दे रही है। इनकी यह उपलब्धि और प्रयास रेगिस्तान में एक लोटा पानी के बराबर है।
"वैद्य मरा, रोगी मरा, मरा सकल संसार"
"एक कबीरा न मरा जाके नाम आधार"
कुछ ऐसी ही तस्वीर सोनभद्र की घसिया जनजाति की है जो न सिर्फ अपनों की लाशें ढो रहे हैं और अपनी संस्कृति को मरते हुए देख रहे हैं। देखना होगा कि इन्हे बचाने कौन आगे आता है।

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