रविवार, 10 मार्च 2013

रेगिस्तान में बदल रहा हैं, उर्जान्चल


उत्तर प्रदेष वि़द्युत विभाग का नवनिर्माणाधिन अनपरा ‘‘डी’’ तापीय परियोजना जिसकी कुल उत्पादन क्षमता 1000 मेगावाट है। निर्माणाधिन अनपरा ‘‘डी’’ परियोजना के निर्माण से कई वर्ष पूर्व में ही एक निष्चित योजना के अंतर्गत यहां के मूल निवासियों की भूमि को जिसे सरकार ने अधिग्रहण कर उनको सरकारी नौकरी तथा मुआवजा देकर इसे खाली करा लिया बाद में सरदार गोविन्द वल्लभ पन्त सागर के आस-पास के भू-भाग को एक व्यवस्थित तरीके के साथ बांध बनाकर उसमें अनपरा ए और बी की इकाईयों द्वारा प्रयुक्त हो चुके कोयला जो जलने के उपरान्त सिर्फ राख मात्र बचता है। इस राख को कई वर्षों तक इसमें भरा गया,  जिससें एक विषाल भू-भाग का निर्माण हुआ। इस भू-भाग को तैयार करने में लगभग 50 फिट राख को इस बाध के अन्दर भरा गया था जो पहले ही सरदार गोविन्द वल्लभ पंत सागर (डैम) के द्वारा छीनी गयी जमीन थी। जिससे एक ऐसे भूमि स्थल का निर्माण किया गया जहाँ पर एक पावर प्लांट का निर्माण किया जा सके, जब प्लांट के निर्माण कार्य करने की समय सीमा तय होने के पष्चात उत्तर प्रदेष सरकार ने इसे ठेके के तौर पर प्लांट निर्माण का कार्य बी.एच.ई.एल (भेल) को षौप दिया ।

‘‘डी’’ परियोजना का प्लंाट निर्माण कार्य षुरू करने से पूर्व राख के उपर तीन फिट मिट्टी डाली गयी ताकि कार्य करने के दौरान राख न उड़े लेकिन जैसे-जैसे इस भू-भाग पर पाइलिंग का कार्य आगे बढ़ा तो तीन फिट मिट्टी जो राख न उड़े इसके लिए डाली गयी थी वह भारी वाहनों एवं भारी मषीनों के द्वारा रौदकर इस मिट्टी को भी राख मे मिला दिया। अब आलम यह है कि जहाँ इस बड़े भू-भाग पर प्लांट का निर्माण हो रहा है। वह राख से भरी है। कार्य करने आये श्रमिकेां को इस राख रूपी भूमि पर कार्य करना पड़ रहा है जो गर्मीयेां के समय में जब हल्की सी भी हवा चलती है तो ऐसा प्रतित होता है कि रेगिस्तान में तुफान आ गया। बरसात के मौसम में यह भूमि दलदल का रूप धारण कर लेती है अनपरा ‘‘डी’’ में कार्य करने वाले मजदूरों की माने तो यहाँ कार्य करना एक बड़ी चुनौती है क्योकि गर्मियों के समय में हल्की सी हवाएँ चलती है तो इतनी राख उड़ती है कि एक-दूसरे के बगल में खड़ा मजदूर अपने दूसरे साथी को नहीं देख सकता। प्रदूषण से सुरक्षा के नाम पर करोड़ों रूपये कम्पनियों वसुलती है लेकिन ये सुरक्षा के उपकरण मजदूरों तक नहीं पहुच पाते जिसमें करोड़ों की हेर-फेर प्रदूषण से सुरक्षा के नाम पर किया जा रहा है।

प्रदूषण से सुरक्षा के नाम पर इन मजदूरों के पास ऐसा कोई भी उपकरण नहीं है जो राख या किसी अन्य प्रदूषित वस्तुओं से इन्हे बचा सके जब कि यह क्षेत्र प्रदूषण के मामले में भारत का नवां सबसे अधिक प्रदूषित क्षेत्र घोषित है। इस परियोजना की लागत कई सौ करोड़ों रूपये में है लेकिन यहाँ कार्य करा रही कम्पनियों केा यहाँ कार्य करने वाले मजदूरों से कोई लगाव नहीं है। कम्पनियों को सिर्फ अपने कार्य से ही मतलब है। बावजूद मजदूर चाहे राख खाये या गन्दा पानी पीये सुरक्षा के नाम पर कम्पनियों की तरफ से राख से बचने व पीने के पानी की भी सही व्यवस्था नहीं है तथा जो संसाधन मजदूरों को सुरक्षा के लिए आते भी है वेा कम्पनी अपने तरीके से बेच खाती है या मजदूरों तक ही नहीं पहुच पाती। कम्पनी के लोग आपस में मिल बाटकर खा जाते है। सूत्रों की माने तो कम्पनियाँ यहाँ कार्य तो करा ही रही है लेकिन अब तक करोड़ों के वारे-न्यारे फर्जी तरीके के साथ हो चुका है। 

भविष्य में भी इस तरह के गतिविधियाँ होती रहेगी। कम्पनियों के अधिकारीयों को बैठने के लिए आवास बने है जब कि मजदूर जो दिन भर धुप व राख खाता है उसे पीने के पानी की भी व्यवस्था डैम के द्वारा की जाती है। जो पहले ही काफी प्रदुषित हो चुका है क्योकि इन औद्योगिक संस्थानों के द्वारा इतने रसायनिक कचरे इस गोविन्द वल्लभ पन्त सागर में बहाया जा चुका है कि इसका जल काफी हद तक जहरीला हो चुका हैं। ऐसी कई घटनाये समाने आ चुकी है कि डैम का प्रदूषित पानी पीकर यहां के लोग अपनी जान भी गवा चुके है। लेकिन यहां के कम्पनियों के लोग आज तक इस समस्या के समाधान एवं मजदूरों की सुरक्षा पर किसी तरह की चिंता दिखाई नहीं देती अगर भविष्य में  सरकार इन समस्याओं की तरफ ध्यान नहीं देती तो ऐसी घटनाए आम हो जायेगी। 

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