निर्माणाधीन कनहर डैम के पास पागन नदी पर इस भीषण गर्मी में विस्थापित
धरने पर बैठे हैं। उनसे वार्ता की जगह पुलिस की संगीनों के साये में
प्रशासन डैम का निर्माण करा रहा है। हालत इतनी बुरी है कि कनहर विस्थापितों
के पैकेज की बंदरबांट में एक लेखपाल ने आत्महत्या तक कर ली। उपरोक्त आरोप
कनहर विस्थापित संघर्ष समिति और आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) के
पदाधिकारियें ने लगाई है। उनका कहना है कि वर्ष-2013 में देश की संसद में
नया भूमि अधिग्रहण कानून बना था जिसकी धारा 24(2) और 101 में साफ लिखा है
कि जिन जमीनों का अधिग्रहण 1894 के कानून के तहत हुआ है और सरकार पांच साल
तक जमीन का वास्तविक कब्जा नहीं हासिल करती है तो उसे पुनः अधिग्रहण करने
के लिए शासनादेश जारी करना होगा। कनहर से विस्थापित हो रहे क्षेत्र का सच
यह है कि डैम के शिलान्यास के बाद आज 40 साल में सरकार ने कब्जा हासिल नहीं
किया। जहां आज भी विस्थापित अपने गांव में रहते रहंे और इन ग्रामों में
सरकारी धन से विकास कार्य होते रहे और वनाधिकार कानून के तहत दावे भी लिए
गये। अधिग्रहण के वक्त सरकार ने हर परिवार को नौकरी देने जैसे जो वायदें
किए थे उन्हें भी पूरा नहीं किया गया। उन्होंने बताया कि कनहर डैम के
जलमग्न क्षेत्र का सही सीमांकन आज तक नहीं हुआ है। तीन बार हुए सरकारी
सर्वे में क्रमशः 2181, 2925 व 4143.5 हेक्टेयर डूब क्षेत्र के अलग-अलग
आकड़े इस सच्चाई को खुद सामने लाते है, साथ ही शिलान्यास के वक्त जारी
दस्तावेज में कहा गया कि डैम की प्रारम्भिक ऊचांई 39.90 मी. रखी जायेगी
जिसे दूसरे चरण में बढोत्तरी करके 52.90 मी. किया जायेगा। लोग यह भी जाना
चाहते है कि कनहर डैम को रिहंद डैम से जोड़ने के लिए डिजायन के अनुरूप यदि
इसकी ऊचांई 52.90 मी0 कर दी गयी तो उत्तर प्रदेश के जनपद-सोनभद्र,
छत्तीसगढ़ झारखण्ड के कितने गांव डूबेंगे। देखने वाली बात यह है कि कनहर
बांध इस क्षेत्र के विकास के लिए जरूरी है लेकिन साथ ही इससे हो रहे
विस्थापितों की न्यायोचित मांगों को पूरा करके ही इस विकास के सपने को
साकार किया जा सकता है। इतिहास गवाह है कि किसान-आदिवासी विस्थापन का दंश
झेल चुके हैं, रिहन्द विस्थापितों को आजतक न्याय नहीं मिला।
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