- दर-दर भटकने को मजबूर है, गरीब आदिवासी।
- अधिकारियों के द्वारा दिये गये वादें के सिवा कुछ भी नहीं बचा है।
- काम भी नहीं कर सकते, पेट की भूख शान्त करने के लिये उसे रोजाना भीख मांगना पड़ता है।
गरीब आदिवासियों के उद्धार के लिये जहाँ सरकार एक से बढ़कर एक योजनायें उपलब्ध करा रही है। वहीं उर्जान्चल परिक्षेत्र में ठण्डी, गर्मी बरसात जैसे मौसमों की परवह किये बगैर सारे थपेडों को झेलते हूए, इन गिरिवासियों की रोज की दिनचर्या इनके उद्धार के लिये सरकार द्वारा चलाये गये सारी योजनाओं को झूठा साबित कर रहा है। तपिष धूप थरथराती जमीन पर हाथ में लाठी के सहारे नंगे पाव चलकर लोगों से पेट की भूख का गुहार लगाना इन आदिवासियों की रोजमर्रा का जीवन बन चुका है। इन गरीब आदिवासियों के उद्धार के लिये कल्याण विभाग से लाखों रूपये पास हाते है। परन्तु उद्धार के लिये इस कार्य में लगे समाजसेवी भी इन गरीबों को ठेंगा दिखाने से बाज नहीं आ रहे है। जिनके आगे-पिछे कोई है भी तो वे किसी तरह कोई ना कोई काम करके अपने परिवार की जिम्मेदारी को सम्भाल ले रहे है। जिनका कुछ नहीं बचा है। वें लोगों के सहारे पर ही आश्रित है।
औड़ी मोड़ नेहरू चैक पर हुई भेंट में एक बुढि़या का बयान जो दाँतों तले उंगलिया दबाने को मजबूर कर देता है। उसने बताया कि वह वल्लभ पंत सागर (रिहन्द बाँध) की एक विस्थापित है। घर में एकलौता लड़का था। जमीन हड़पनें के बाद उनके पास अधिकारियों के द्वारा दिये गये वादें के सिवा कुछ भी नहीं बचा है। वक्त ने करवट फेरा उन्हें अपनी ही जमीन से खदेड़ दिया गया। कुछ दिनों बाद लड़का बिमारी का शिकार हुआ और इस दुनिया से चल बसा। घर में बस वह और उसके उम्र के सेवानिवृत्त के कगार पर खड़े पति है। जो काम भी नहीं कर सकते, पेट की भूख शान्त करने के लिये उसे रोजाना भीख मांगना पड़ता है। बता दे यह आष्चर्य नही है। शक्तिनगर से राबर्टसगंज तक सैकड़ों ऐसे गरीब मिल जायेंगे। जो पेट की भूख को शान्त करने के लिये। जगह-जगह लोगों से गुहार लगाते दिख जायेंगे। वहीं दूसरी तरफ पिछले एक दषक से सर्वाजनिक स्थानों एवं राजमार्ग पर विक्षिप्त (पागल) युवक/युवतिया भी लोगों के मदद पर ही निर्भर है। क्या इनका भी कभी उद्धार होगा ? सोचने की बात है।
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