1- दशक-दर-दशक विस्थापितों की बढ़ती संख्या से कही विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक ये जाति भी सम्मिलित ना हो जाय।
2- आदिवासी आज भी वहीं है जहाँ वह १९७८ में अपनी भूमि छिनने के समय बे-आवाज खड़ा था एवं उन्हें केवल कागजो मुआवजा दिया गया है जमीनी तौर पर नहीं
आज पूरे देश में किसानों की भूमि अधिग्रहण का विरोध हो रहा है भट्टा-परसौल में तो गर्माया विस्थापन का यह मुद्दा तो इतना गम्भीर हो गया कि राहुल गांधी को यह देखकर कहना पड़ा कि उन्हे भारतीय हाने पर शर्म आ रही है। यह मामला केवल भट्टा-परसौल के किसानों के साथ नहीं हो रहा है बल्कि आज से तीन द’ाक पूर्व सोनभद्र में हुए अनपरा तापीय परियोजना के निर्माण हेतु किए गए विस्थापितों के साथ की है। सरकार जिनकी आवाजों को लगभग ३० सालों से दबाये हुए है। जिसके कारण आज भूमि अधिग्रहण कानून १८९४ में संशोधन की कवायद चल रही है सभी राजनैतिक दल अपने को किसानो-आदिवासियों का हितैषी बताने के लिए नित नये हत्थकण्डे अपना रहे हैं। पूरा देश भूमि अधिग्रहण के मामले में सुलग रहा है वहीं दूसरी ओर उत्तर-प्रदेश के जनपद सोनभद्र में हजारों आदिवासी परिवार जिसकी हजारों एकड़ भूमि तत्कालिन सरकार ने अनपरा ताप विद्युत परियोजना निर्माण के लिए अधिग्रहित किया तथा उन्हे सरकारी नौकरी, नियमानुसार मुआवजा एवं अन्य सुविधाएं देने के लिए नियमों का हवाला देकर उनके हक को छिना जा रहा र्है। ज्ञात हो कि उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष वर्ष १९७८ में ३१३० मे.वा. की अनपरा तापीय परियोजना के निर्माण हेतु कुल ५०७६ एकड़ भूमि अधिग्रहित की गयी जिसमें सात ग्राम सभाओं की किसानों की ३१०६.४८७ एकड़ कृषि योग्य भूमि भी अधिग्रहित की गयी। भूमि अधिग्रहण से कुल १३०७ परिवार प्रभावित हुए जिसमें ८० प्रतिशत लोगों की शत-प्रतिशत कृषि योग्य भूमि अधिग्रहित कर ली गयी। भूमि अधिग्रहण में ८९८ लोगों के मकान भी प्रभावित/अधिग्रहित की गयी। अधिग्रहण के पश्चात तत्कालीन सरकार द्वारा विस्थापित/प्रभावित परिवारों को परियोजना में स्थायी सेवायोजन एवं अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराये जाने की बाबत विनियमावली बनायी गयी तथा समझौते किये गये परन्तु अभी तक सरकार द्वारा बनायी गयी नियमावली एवं किये गये समझौतों का अनुपालन तीन दशक बाद भी सुनिश्चित नहीं किया जा सका है। परियोजना द्वारा पुर्नवास एवं पुर्नबसाहट की सुविधा से वंचित बचे विस्थापित परिवारों व उनके सदस्यों पर उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा वर्तमान में पुर्नवास एवं पुर्नबसाहट नीति २०१० का भी अनुपालन नहीं किया जा रहा है जिससे उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा घोषित पुर्नवास एवं पुर्नबसाहट नीति २०१० की सार्थकता पर प्र’न चिन्ह खड़ा कर दिया है। पूर्व में विस्थापितों द्वारा किये गये आन्दोलन उपरान्त किये गये किसी भी समझौते का अनुपालन प्रबन्धन द्वारा नहीं सुनि’िचत किया जा रहा है। निगम की इस तानाशाही एवं भेदभाव वाली नीति का सर्वाधिक असर अनुसूचित जाति एवं जनजाति के परिवारों पर पड़ा है जिससे आज दसो हजार विस्थापित आदिवासी-दलित परिवार भूखों मरने के कगार पर खड़ा है और सरकारी उपेक्षा से उनमें आक्रोश दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। उत्तर-प्रदेश सरकार विस्थापित परिवारों से वायदा खिलाफी कर उनसे बन्दूक के बल पर सत्ता की हनक से उनके हक-हकूक को छीनना चाहती है जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। बार-बार विभिन्न संगठनों एवं राजनैतिक दलों के माध्यम से शासन एवं प्रशासन को अवगत कराया गया है परन्तु आजतक सारे प्रयास विस्थापितों को न्याय नहीं दिला पाये। मण्डलायुक्त विन्ध्याचल मण्डल, मिर्जापुर एवं जिलाधिकारी स्तर पर बार-बार वार्ता के उपरान्त भी विस्थापितों की समस्याओं पर कोई प्रभावी व सकारात्मक पहल नहीं हुआ है। १५ नवम्बर २०१० को जिलाधिकारी सोनभद्र को स्थानीय जनप्रतिनिधियों, राजनितिक दलों एवं गैर सरकारी संगठनों द्वारा प्रेषित ज्ञापन के सन्दर्भ में १६ नवम्बर २०१० को जिलाधिकारी, सोनभद्र के कार्यालय में अनपरा तापीय परियोजना के विस्थापितों/भूमि अधिग्रहण से प्रभावित परिवारों के पुर्नस्थापन एवं पुर्नवास से सम्बन्धित समस्याओं के निस्तारण हेतु बैठक आहूत की गई। जिसमे जिलाधिसकारी, सोनभद्र की अध्यक्षता में हुई बैठक में लिए गए निर्णय के अनुरूप ९० दिवस के भीतर शासन द्वारा मुख्य महाप्रबन्धक, अनपरा द्वारा भेजे गए विकल्पों के आधार पर उत्तर प्रदे’ा शासन को निर्दे’ा देना था परन्तु आज तक शासन द्वारा इस सम्बन्ध में कोई पहल नहीं की गई है। जो विस्थापितों के साथ ऐतिहासिक अन्याय है। विस्थापित जन प्रतिनिधियों की मांग है कि उत्तर-प्रदेश राज्य विद्युत परिषद (भूमि अध्यापित से प्रभावित परिवार के सदस्य की नियुक्ति) विनियम-१९८७ के तहत सभी शेष बचे विस्थापितों को अविलम्ब स्थायी सेवायोजन, परियोजना द्वारा जिन आधारों पर पूर्व में मकान एवं ५० प्रतिशत से कम भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले परिवार के सदस्यों को स्थायी सेवायोजन दिया गया है उन्ही आधारों पर शेष बचे भू-विस्थापित एवं मकानों के अधिग्रहण से प्रभावित परिवार के एक सदस्य को स्थायी सेवायोजन, परियोजना के शेष बचे विस्थापित जिन्हे दो दशक तक परियोजना द्वारा छला गया एवं स्थायी सेवायोजन से विमुख रखा गया उन्हे पुर्नवास/पुर्नबसाहट विस्थापन भत्ता एक मुश्त दिया जाये तथा उत्तर-प्रदेश राज्य विद्युत परिषद (भूमि अध्यापित) से प्रभावित परिवार के सदस्य की नियुक्ति (प्रथम संशोधन) विनियमावली-१९९४, दिनांक: ०७.०२.१९९४ जो कि अवैधानिक है उसे तत्काल प्रभाव से वापस लिया जाये। क्योंकि विगत तीन द’ाकों में परियोजना द्वारा बार-बार विस्थापितों के आन्दोलन को बल पूर्वक दबाने का प्रयास किया गया तथा प्रशासनिक हस्तक्षेप से होने वाले समझौतों का अनुपालन नहीं सुनिश्चित किया गया जिससे हजारों आदिवासियों-दलित परिवारों के समक्ष भूखों मरने की समस्या खड़ी हो गई है। गौर किया जाए तो बस एक ही चीज समझ में आती है कि आज भी विस्थापित बेआवाज बना हुआ है। समय-समय पर विस्थापितों की आवाज बनकर कई जनप्रतिनिधियों ने केवल अपना उल्लू सीधा किया है। विस्थापितों की ओर से मा० सर्वौच्च न्यायालय में मुकदमा लड़ रहे पंकज मिश्रा, सचिव (सहयोग गैर सरकारी संस्था) का कहना है कि आदिवासी आज भी वहीं है जहाँ वह १९७८ में अपनी भूमि छिनने के समय था। कुछ यही हाल नार्दन कोल फिल्डस की बीना, ककरी एवं कृष्ण’ाीला परियोजना के विस्थापितों के साथ है। ज्ञात हो कि उत्तर-प्रदेश के तत्कालीन जनपद मिर्जापुर एवं मध्य-प्रदेश के सीधी में कोयला परियोजनाओं की स्थापना हेतु भूमि अधिग्रहण ७० के दशक में किया गया था। वर्तमान में एनसीएल द्वारा उन्ही अधिग्रहित भूमियों पर एनसीएल परियोजनाओं का संचालन किया जा रहा है। भूमि अधिग्रहण के समय भू-विस्थापितों/प्रभावितों के प्रतिनिधियों एवं कोयला परियोजना प्रबन्धन के बीच विस्थापितों को स्थायी रोजगार उपलब्ध कराने के सन्दर्भ में यह समझौता हुआ था कि प्रत्येक विस्थापित परिवार के एक सदस्य को जिनकी भूमि एवं भवन (केवल भवन) परियोजना हेतु अधिग्रहित कर ली गयी हो उसके एक सदस्य को अनिवार्य रूप से कोयला परियोजना में नौकरी दी जायेगी परन्तु प्रबन्धन द्वारा विस्थापितों/प्रभावित परिवार के सदस्यों के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया जा रहा है जिसके कारण कुछ भूमि अधिग्रहण से प्रभावित परिवार के सदस्यों तथा समस्त मकानों (जिनके सिर्फ मकान अधिग्रहित हुए) के अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले परिवार के सदस्यों को अभी तक स्थायी रोजगार उपलब्ध नहीं कराया गया। ऐसे परिवारों के समक्ष भुखमरी की समस्या खड़ी हो गयी है। शेष बचे विस्थापित/प्रभावित परिवार के सदस्यों को एनसीएल में तत्काल स्थायी रोजगार उपलब्ध कराया जाये। एनसीएल द्वारा पुर्नवास सेल की बैठक में विस्थापित प्रतिनिधियों द्वारा एनसीएल की परियोजनाओं में विस्थापितों को स्थायी रोजगार उपलब्ध कराने के सन्दर्भ में की गयी मांग के सन्दर्भ में यह व्यवस्था बतायी गयी कि एनसीएल में जब स्थायी रोजगार के लिए उपलब्धता होगी ऐसी परिस्थितियों में शेष बचे विस्थापितों को स्थायी रोजगार दिया जायेगा। वर्तमान समय में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की बहाली के लिए एनसीएल द्वारा प्रक्रिया शुरू की गयी है। बहाली की वर्तमान प्रक्रिया को संशोधित करते हुए चतुर्थ श्रेणी के सारे पद परियोजना विस्थापित/प्रभावित परिवारों के सदस्यों के लिए आरक्षित किया जाये तथा उनकी सीधी भर्ती की जाये। एनसीएल की ककरी परियोजना के लिए किये भू-अर्जन के समय परियोजना द्वारा अधिक गैर जरूरी जमीनों का अधिग्रहण कर लिया गया जिसे बाद में प्रबन्धन द्वारा डिनोटिफिकेशन के लिए प्रस्तावित किया गया है जो वर्तमान में लम्बित है। इस विषय पर कोल बेयरिंग एक्ट में आवश्यक संशोधन कर तत्काल कास्तकारों की जमीनों का डिनोटिफिकेशन कर उन्हे वैद्यानिक रूप से वापस किया जाये। अधिग्रहण से पूर्व हुए समझौते में प्रबन्धन द्वारा वर्ग-चार की भूमियों पर सामान दर से प्रतिकर एवं अन्य सुविधाए देने की बात स्वीकार की गयी थी। पुर्नवास सेल की बैठक में उपरोक्त सन्दर्भ में पुर्नवास सेल के अध्यक्ष, जिलाधिकारी मिर्जापुर द्वारा व्यवस्था दी गयी कि इस सर्वे प्रक्रिया शुरू होने जा रही है जिसमें कास्तकारों का स्वामित्व निर्धारित होगा तत्पश्चात समाधान होगा। सर्वे प्रक्रिया के दौरान उक्त जमीनों पर नोटिफिकेशन व परियोजना का कब्जा होने के कारण कास्तकारों को उनके भौमिक अधिकार नहीं मिल सके। इन सबसे बस यही नजर आता है कि विस्थापन उर्जांचल में एक जाति, नस्ल सी बन गई है जों, ७० के द’ाक से पनपती जा रही। जो परियोजनाए इस क्षेत्र के विकास के उद्दे’य से बनायी गई थी, वही यहा के आदिवासियों के लिए एक श्राप बन कर रह गई है। ग्राम पंचायत सदस्य-औड़ी के शक्ति आनन्द कनौजिया का कहना है कि एक बार इन्हें रिहन्द बांध बनते समय फिर नार्दन कोल फिल्डस के खदानों के नाम पर एवं अनपरा तापीय परियोजना के द्वारा एक बार फिरसे इनके साथ आजतक अन्याय हो रहा है। यह कहा का इन्साफ है। देखने वाली बात यह है कि इन बेगुनाहों को कब न्याय मिल पाता है। आखिर में बस एक बात कोसती है कि देश के विकास की गर इतनी बड़ी किमत है तो फिर उस विकास अर्थ ही क्या है। दशक-दर-दशक विस्थापितों की बढ़ती संख्या से कही विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक ये जाति भी सम्मिलित ना हो जाय।
पंकज कुमार मिश्र |
" आदिवासी आज भी वहीं है जहाँ वह १९७८ में अपनी भूमि छिनने के समय बे-आवाज खड़ा था एवं उन्हें केवल कागजो मुआवजा दिया गया है जमीनी तौर पर नहीं"
" एक बार इन्हें रिहन्द बांध बनते समय फिर नार्दन कोल फिल्डस के खदानों के नाम पर एवं अनपरा तापीय परियोजना के द्वारा एक बार फिरसे इनके साथ आजतक अन्याय हो रहा है। यह कहा का इन्साफ है। देखने वाली बात यह है कि इन बेगुनाहों को कब न्याय मिल पाता है। आखिर में बस एक बात कोसती है कि देश के विकास की गर इतनी बड़ी किमत है तो फिर उस विकास अर्थ ही क्या है। दशक-दर-दशक विस्थापितों की बढ़ती संख्या से कही विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक ये जाति भी सम्मिलित ना हो जाय। "
लाजवाब पर हल क्या है
जवाब देंहटाएं