शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

आज भी नहीं मिल रही आदिवासियों को पहचान


सोनभद्र के आठों विकासखंडों के अनेक गांवों के आदिवासी-जनजाति निवासी अपने दर्द को हमेषा से बयां कर रहे हैं, वह ज्यादातर उत्तर प्रदेश में निवास करने वाली कोल, कोरवा, मझवार, धांगर (उरांव), बादी, मलार, कंवर आदि अनुसूचित जातियों के लाखों लोगों का दर्द है। इनके सरीखे सोनभद्र के लाखों आदिवासी-जनजाति के लोग जंगल से लकड़ी, कंदमूल आदि लाकर और मजदूरी करके पेट की आग शांत कर लेते हैं, लेकिन सरकारी दाव-पेंच में फंसकर जेल की हवा खाने का खौफ इन्हें हमेशा सालता रहता है। इस खौफ की वजह जिला प्रशासन है। जिला प्रशासन ने अब तक सैकड़ों लोगों पर वन भूमि पर अवैध कब्जे का आरोप लगाकर जेल भेज दिया है, जो अभी भी जेल की हवा खाने को मजबूर हैं। 

गौरतलब है कि कोल, कोरवा, मझवार, धांगर (उरांव), बादी, मलार, कंवर सरीखी जातियों के लोग आदिकाल से जंगलों में निवास कर अपना जीवनयापन करते चले आ रहे हैं। इसका वर्णन हमे शास्त्रों में भी मिलता है। आज से करीब चार सौ साल पहले तुलसीदास ने रामचरित मानस  में भी कोलों का वर्णन आदिवासी के रूप में किया है। भारत सरकार ने भी बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगड़, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में कोल, कोरवा, मझधार, धांगर (उरांव), बादी, मलार, कंवर आदि जातियों को आदिवासी के दर्जे से नवाजा है। वहीं, जनसंख्या के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल किया गया है। जो इनके साथ किये गये एक ऐतिहासिक अन्याय की गवाह है। जिसके कारण इन जातियों के लोगों को अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून-2006 यानी वनाधिकार कानून का लाभ नहीं मिल पा रहा है और यह जातियाँ इनके मौलिक अधिकार से वंचित हो रहे है। विसंगतियों से भरे वनाधिकार अधिनियम-2006 के प्राविधानों के कारण वन विभाग की भूमि पर काबिज आदिवासियों को ही आसानी से कब्जा मिल पाता है। अन्य परंपरागत वन निवासियों को अब भी अपने पूर्वजों की जोत-कोड़ की जमीन पर निवास करने अथवा खेती करने के अधिकार से वंचित रहना पड़ रहा है। वनाधिकार कानून में अन्य परंपरागत वन निवासियों के लिए उन्हें अधिनियम में उल्लिखित जंगल में अपने पूर्वजों की तीन पीढि़यों के निवास प्रमाण पत्र उपलब्ध कराने के प्रावधान ने कोल सरीखे पारंपरिक आदिवासियों को कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। इन निवास करने के प्रमाणों को प्रशासन के सामने पेश करने के लिए इन्हें काफी परेशानी उठानी पड़ रही है। जिसके कारण ये वनाधिकार कानून के लाभ से भी वंचित हो रहे हैं तथा प्रशासन उन्हें अतिक्रमणकारी बताकर जेलों में ठूंस रही है। प्रशासन की इस कार्यवाही से अब यह प्रश्न उठने लगा है कि आखिरकार आदिवासी कौन हैं ? पारंपरिक रूप से वनों में रहकर उसके वनो से प्राप्त अवशेषों से अपना और अपने परिवार का गुजर-बसर करने वाले लोग या फिर राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदों द्वारा तैयार किए गए कागज के पुलिंदों में अंकित जातियों के लोग। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र एवं इससे सटे मिर्जापुर जिले में निवास करने वाली कोल, कोरवा, मझवार, धांगर (उरांव), बादी, मलार, कंवर आदि जाति के लोगों को वनाधिकार कानून का लाभ मिलता दिखाई नहीं दे रहा है, जबकि अन्य राज्यों समेत शास्त्रों तक में ये आदिवासी के रूप में दर्ज हैं। साथ ही उत्तर प्रदेश में कोल, कोरवा, मझवार, धांगर (उरांव), बादी, मलार, कंवर आदि जातियों की सामाजिक स्थिति काफी दयनीय है। ये जातियाँ सोनभद्र में आज भी जंगलों से लकड़ी, कंदमूल सरीखे अवशेष बेचकर और मजदूरी करके अपना तथा अपने परिवार का पेट भर रहे हैं। फिर भी राज्य सरकार एवं जिला प्रशासन इन्हें उनकी पुस्तैनी जंगल की कब्जे की जमीन से बेदखल कर रहा है। उत्तर प्रदेश के कई जिलों में कोल, कोरवा, मझवार, धांगर (उरांव), बादी, मलार, कंवर आदि सरीखे पारंपरिक आदिवासियों के छिनते अधिकार पर सत्ताधारी अथवा गैर-सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदें चुप्पी साधे हुए हैं। कोल बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले बहुजन समाज पार्टी के पूर्व सांसद लालचंद कोल और भाईलाल कोल भी संसद में अपने समुदाय की आवाज बुलंद नहीं कर सके। करीब सवा लाख कोलों की आबादी वाले राबर्ट्सगंज संसदीय से अब समाजवादी पार्टी के पकौड़ी लाल कोल लोकसभा में लाखों कोलों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। फिर भी कोलों के आदिवासी दर्जे की आवाज संसद में बुलंद नहीं हो रही। उधर उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित जनपद मिर्जापुर, चंदौली और सोनभद्र में जिला प्रशासन नक्सल के नाम पर कोलों को निशाना बना रहा है। इसके कारण कोल जाति के लोग अपने हक की आवाज उठाने से कतरा रहे हैं।

आदिवासीयों के मौलिक अधिकार से वंचित कोल, कोरवा, मझवार, धांगर (उरांव), बादी मलार, कंवर आदि जातियों के लोग अपनी पुस्तैनी जमीन से बेदखल होने के बाद दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। जिसके साथ ही, उनकी अमूल्य नृत्य संस्कृति भी दम तोड़ रही है। आदिवासियों के वनाधिकार कानून समेत अन्य अधिकारों को लेकर कुछ सामाजिक और राजनीतिक संगठनों ने आवाज उठानी शुरू कर दी है। इन संगठनों में जन संघर्ष मोर्चा, वनवासी गिरिवासी और श्रमजीवी विकास मंच का नाम प्रमुख है। इन सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के प्रयास से वनाधिकार कानून के लाभ से वंचित आदिवासियों ने भी धीरे-धीरे अपनी आवाज उठानी शुरू कर दी है। आदिवासी राजनीतिक नुमाइंदों से पूछ सकते हैं कि ................... वास्तविक आदिवासी कौन ?


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