शनिवार, 14 जून 2014

उर्जांचल के विस्थापितों के दशकों का दर्द, आज भी नहीं मिला न्याय

ः पुर्नवास के नाम पर बेलवादह के परिवारों को मिलेमात्र एक लाख 
ः कोर्ट के फैसले के बावजूद भी नहीं मिल प् रहा है शतप्रतिशत पुर्नवास लाभ 
ः तीन वर्षों से चल रही है पुनर्वास लाभ वितरण की प्रक्रिया

नक्सल समस्या आज राष्ट्रीय समस्या है और इससे निपटने का कार्य सिर्फ क¢न्द्र सरकार का ही नहीं बल्कि प्रभावित राज्य सरकारो का भी है। कुछ राज्यों ने सुरक्षा और अन्य प्रभावी योजनाओं के लिए तमाम कदम उठाये हैं लेकिन उ.प्र. सरकार अपने राज्य के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिले सोनभद्र में ऐसी कोई कवायद शुरू करने के मूड में नहीं है। 1950 के बाद रिहन्द बांध बनने के उपरान्त सोनभद्र को उर्जांचल के रूप में विकसित किया जाने गा साथ ही औद्योगिक विकास को लेकर कदम भी उठाये गये।

ओबरा, अनपरा ताप विद्युत परियोजना तथा एनटीपीसी हिण्डाल्को इण्डस्ट्रीज, जे.पी.सिमेण्ट, लैंको पावर सहित तमाम औद्योगिक प्रतिष्ठान सोनभद्र में स्थापित हैं बावजूद इसके गरीब आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण करने के बाद भी उनसे किये गये वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं मिला।  लिहाजा विस्थापित/आदिवासी आज अपने हक के लिए किसी भी हद तक जाने की बात कर रहा है। उ.प्र. सरकार नक्स प्रभावित जिा सोनभद्र क¢ आदिवासियों को लेकर कितना संजीदा है इसका अन्दाजा इसी बात से गाया जा सकता है कि विद्युत इकाई सी बनने के लिए जिन आदिवासियों ने अपनी भूमि दी उन्हें नौकरी नहीं मिलि और उस जमीन को लैंको पावर प्राइवेट लिमिटेड को स्थानान्तरित कर दी गयी। जिस पर आज लैंको की चिमनियों से विस्थापितों की आहे निकल रही है। विस्थापित प्रतिनिधियों द्वारा इस बात पर सवा पुछे जाने पर उ.प्र.पावर कारपोरेशन के अधिकारी इसे शासनादेश बतातें हैं, और इस प्रकरण से अपना पल्ला झाड़ लेते है। 

पंकज मिश्रा
" विस्थापितों का प्रतिनिधित्व करने वो गैर सरकारी संगठन सयोग के सचिव पंकज मिश्रा द्वारा य बताया जाता है कि सार्वजनिक प्रयोजन हेतु किये गये भूमि अधिग्रण में जो भूमि अधिग्रति की जाती है से किसी नीजि कम्पनी को लीज पर देने का अधिकार उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत त्पादन निगम को नहीं है, तथा राज्य सरकार की नई भूमि अधिग्रण नीति के तहत यदि किसी नीजि कम्पनी को सार्वजनिक प्रयोजन हेतु अधिग्रहित की गयी भूमि दी जाती है तो से कम्पनी में शतप्रतिशत भूमि अधिग्रहण से प्रभावित परिवार के एक सदस्य को स्थायी सेवा योजन प्रदान किया जायेगा। जबकि लैंको द्वारा इसे एक सिरे से नकार दिया जाता है। लैंको द्वारा बताया जाता है कि ऐसा कोई अनुबंध भूमि स्तानांतरण के अनुबंध पत्र में निगम द्वारा नीं रखा गया है। "


शक्ति आनन्द
" ग्राम पंचायत सदस्य ओढ़ी शक्ति आनन्द का कहना है कि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र की समस्या सुझाने में यहाँ के स्थानीय जनप्रतिनिधियों की काफी जिम्मेदारी होती है और इस समस्या की बाबत क्षेत्रीय विधायक से स्तक्षेप करने का अनुरोध किया गया तो गया तो उन्होंने इस प्रकरण को सदन में उठाने की बात कह कर अपना पल्ला झाड लिया। जिम्मेदारी लेना तो दूर इस समस्या को सुझाने का उनके पास कोई विकल्प नहीं। श्री आनन्द ने यह भी बताया कि वर्तमान में जो पूर्नवास प्रस्ताव परियोजना द्वारा बनाकर पुर्नवास लाभ बाटा जा रहा  है व सिर्फ विस्थापितों के साथ न्याय की एक खानापूर्ति है। क्योंकि इस पुर्नवास प्रस्ताव में ग्राम बेलवादह व बासी के प्रभावित परिवारों को सूचीबद्ध नहीं किया गया है तथा हजारो परिवारों को पुर्नवास लाभ प्रस्ताव से वंचित रखा गया है। जिनका नाम विभिन्न कारणों की वजह से परियोजना के प्रभावित परिवारों की सूची में दर्ज नहीं हो पाया है। "

हरदेव सिंह 
ग्राम सभा बेलवादह के ग्राम प्रधान हरदेव सिंह ने बताया कि वर्तमान में प्रस्तावित पूर्नवास लाभ सूची में बेलवादह के विस्थापितों को वंचित रखने की वजह से यहाँ के विस्थापितों में परियोजना के इस रवैये को लेकर बहुत आक्रोस त्पन्न हुआ है। जिससे कि परियोजना के कार्य को ग्रामीणों द्वारा रोककर विरोध दर्ज कराया गया था। जिस पर परियोजना कहती है कि यहाँ के विस्थापितों को वर्ष २००२ में  ही पुर्नवास लाभ व प्रतिकर दिया जा चुका है। जबकि उस समय बाटी गयी राशि का पुर्नवास लाभ से कोई लेना देना नहीं है। जिसकी आ़ड में परियोजना हमें पुर्नवास लाभ  सें वंचित रख रही है। इस विषय पर प्रभावित परिवार माननीय सर्वोंच्च न्यायाय के अगकी सुनवाई का इंतजार कर रे है।


कुल मिलाकर इस कहानी में कुछ ऐसे कटु आध्याय हैं जिसे देखकर देश के लोकतान्त्रिक स्वरूप को भी शर्म आयेगी। १९७८ में इस परियोजनाओं की शुरूआत के दौरान तत्कालीन सरकार ने आदिवासियों के पुर्नवास और नौकरी के लिए बड़े  निर्णय लिए थे फिर बाद की सरकारों ने इन परियोजनाओं को पैसा बनाने की मशीन बना लिया। बीते दो दशकों से इन आदिवासियों का विष्य कागजों में दबा हुआ है और आदिवासियों के हित में आवाज उठाने वो लोगो को सत्याग्रह करने की वजह से जेल भी जाना पड़ा। तमाम सरकारी चक्रव्यू में फंसा यह मामाला सुप्रीम कोर्ट के  संज्ञान में है। जिस पर कोर्ट ने बीते वर्ष २०१२  में अपना फैसा विस्थापितों के  पक्ष में दे दिया है फिर भी कोर्ट के  इस फैसेले का शतप्रतिशत अनुपान नहीं किया जा रहा है। जो हजारो आदिवासियों के विष्य को लेकर लोकतान्त्रिक स्वरूप में मांग कर रहे आदिवासी समुदाय के लोगो को राज्य सरकार अपना जवाब लाठी और डंडो से दे रही है।

रविवार, 1 जून 2014

कनहर परियोजनाओं में खुलेआम हो रही चोरी

कनहर परियोजना के पुराने भूखण्ड व उपकरणों की चोरी बदस्तूर जारी है। अमवार मंे परियोजना शुरू कराने के पूर्व विस्थापितों के लिए सड़क व आवास निर्माण की प्रक्रिया गति पकड़ रही है। इसके आड़ में कुछ लोग सफेदपोष व कर्मियों की मिलीभगत से पुराने भूखण्डों व गोदामों पर पड़े कीमती सामानों पर हाथ साफ करके अपनी जेब गरम करने में लगे हुए है। इतना ही नहीं हौसला बुलंद लोग मायाजाल में फंसा कर चोरी के सामानों को नीलाम मंे लेने की बात भी प्रचरित करा रहे है ताकि लोगों को किसी प्रकार का शक न होने पाये। सूत्रों की माने तो टीन व सीमेंट की शेडों के अलावा लाखों के सामान गुपचूप तरीके से परियोजना परिसर से हटाया जा चुका है। 

दीमक की तरह परियोजना को पूरी तरह चाट चुके चोरों की करतूत का अंदाजा वहां की तस्वीरों को देख कर आसानी से लगाया जा सकता है। इतना ही नहीं बेखौफ ढंग से कुछ श्रमिक एक ट्रैक्टर-ट्राली पर पुराने भवन से निकले पत्थरों को लोड करने मंे लगे हुए थे। ट्रैक्टर चालक ने एक व्यक्ति का नाम लेते हुए बताया कि उन्ही के निर्देष पर यहां का बोल्डर वह बाजार में बेचता है। इसी तरह परियोजना स्थल से गुपचूप ढंग से उजाड़ी गयी टीन शेड अब वहां के ग्रामीणों के चहारदिवारी का काम कर रही है। ऐसे कई मकान देखने को मिला जिसमें परियोजना स्थल व आवासीय कालोनी से निकला हुआ लोहे का सामान लगाया गया है। सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर कोई नहीं मिला। फिल्ड हास्टल में दो लोग मिले। वह अपने आप को श्रमिक बताकर किनारा कस लिये। वहां तैनात चैकीदारों के बाबत जानकारी लेने पर ग्रामीणों द्वारा कोई सटीक जानकारी नहीं दी गयी। प्रभारी निरीक्षक पीपी सिंह के मुताबिक इस तरह की कोई षिकायत उनके संज्ञान में नहीं आयी है।

फाइलों में कैद है जयन्त हादसे का सबूत

कोल इण्डिया की प्रमुख सहयोगी कंपनी नार्दर्न कोल फील्ड्स लिमिटेड की जयन्त कोयला परियोजना में ओबी/कोयला फेस खिसकने से पांच कामगारों के मौत की वजहों की रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं हो पायी है। दिल दहला देने वाले हादसे के लिए कौन लोग जिम्मेदार रहे और किस तरह की लापरवाही के वजह से घटना हुई, यह आज भी पहेली बनी हुई है। जानकारो ंकी माने तो हादसे की जांच के लिए एनसीएल व डायरेक्टर जनरल आफ माइंस सेफ्टी स्तर से दो टीमों का गठन किया था और डीजीएमएस की टीम ने हादसे की वजहों की गहन पड़ताल भी की, लेकिन इसकी रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक क्यों नहीं की गयी, इस बाबत कोई जिम्मेदार अधिकारी कुछ बताने को तैयार नहीं है। वर्ष 2008  में एनसीएल के जयन्त कोयला खदान में हुए एक हादसे में पांच कंपनी कर्मियों की मौत हो गयी थी। फेस के बीच दबे कर्मियों के शवों को निकालने में हुई देरी की वजह से कंपनी के मजदूरों ने बवाल भी काटा था। आक्रोषित मजदूरों और इलाके के लोगों का कहना था कि घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को चिन्हित कर सजा दिलायी जाय। समय के साथ इस मामले को बिसार दिया गया और मृतक श्रमिकों के परिजन व कंपनी के मजदूरों के साथ इलाके के लोग आज तक यह नहीं जान पाये कि आखिर वह कौन सी वजह थी, जिससे पांच लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। 

आई जी का निर्देष भी नहीं आया काम:- कोयला खदान में हुए हादसे के गरीब दो साल बाद सिंगरौली आये रीवां रेंज के आईजी गाजीराम मीणा के जनता दरबार में हादसे में हुई मौतों का मामला गूंजा। इस पर श्री मीणा ने मोरवा थाने के टीआई अनिल उपाध्याय को जांच करने और डीजीएमएस की रिपोर्ट प्राप्त कर चालान पेश करने का निर्देश देने के साथ यह भी माना था कि मामले में 304 ए और 304 बी के तहत कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन आईजी के निर्देश पर नतीजा भी सिफर है।

धारा-20 के पेच में फसे विद्यालय

वन विभाग नहीं बनने दे रहा अतिरिक्त कक्ष और बाउन्ड्री

धारा बीस के पेच में तमाम विद्यालयों का विकास कार्य प्रभावित है। विद्यालयों में बनने वाले अतिरिक्त कक्ष, किचन शेड और बाउन्ड्री के निर्माण के लिए आया धन जस का तस खाते में पड़ा है। वन विभाग के लोग काम शुरू होने के बाद रोक दे रहे है। उनका कहना है कि वे वन क्षेत्र में निर्माण नहीं होने देंगे। जबकि ग्रामीणों का कहना है कि वनाधिकार कानून के तहत सार्वजनिक दावे के रूप में जमीनों का दावा दाखिल हो चुका है। वनाधिकार कानून लागू होने के बावजूद धारा बीस की जमीन से वन कर्मियों का मोह भंग नहीं हो सका है। ग्रामीणों के कब्जे की भूमि के अलावा सार्वजनिक कार्यों के लिए किये गये दावे भी उनके गले नहीं उतर रहा है। धारा बीस की जमीनों में बने विद्यालयों को जहां वन कर्मियों द्वारा गिराने तक की धमकी दी जा रही है, वहीं निर्माण की सूचना पर पहुंचे वनकर्मी कार्य को भी रोक रहे है। वनाधिकार कानून के तहत समितियों के पास पड़े सार्वजनिक दावों को भी वन कर्मी नहीं मान रहे है। इस तरह के विद्यालयों पर ध्यान दे ंतो प्राथमिक विद्यालय छुरछुरिया, नकटू, लीलासी और पूर्व माध्यमिक विद्यालय लीलासी का भी काम धारा बीस की जमीन होने के कारण ठप हो गया है। इन विद्यालयों में किचन शेड, बाडन्ड्री नकटू, अतिरिक्त कक्षाकक्ष का निर्माण प्रभावित हुआ है। काचन ग्राम पंचायत के छुरछुरिया विद्यालय के निर्माण के बाद इसे गिराने के लिए भी वन कर्मियों द्वारा कहा जा रहा है।

इसी विद्यालय की बाउन्ड्रीवाल का निर्माण आधा अधूरा होकर पूरा होने का इंतजार कर रहा है। विद्यालय की बाउन्ड्री न होने के कारण यहां तैनात अध्यापिका एवं बच्चे असुरक्षित महसूस कर रहे है। कुक्ड मिल का भोजन करते मसय जहां कुत्ते और अन्य जीव जंतु पहुंच जा रहे है, वही अतिरिक्त कक्ष न बन पाने के कारण बच्चें बाहर पढ़ने के लिए मजबूर है। रविवार को विकास खण्ड मुख्यालय पर पहुंचे विन्ध्याचल मण्डल के आगमन पर ग्रामीणों ने इसकी षिकायत उनसे की है। इस सम्बन्ध में म्योरपुर षिक्षा क्षेत्र के खण्ड षिक्षा अधिकारी राजीव यादव ने कहा कि वन विभाग सरकारी प्रक्रिया के तहत ही जमीनों के हस्तान्तरण की बात कह रहा है, ऐसे में जब तक प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक कुछ भी नहीं किया जा सकता है। 

खूबसूरत सरकारी भवनों को लावारिस छोड़ना एक पहेली

करमा का बंगला भुतहा, निसोगी व बेलौरी के भवन भी क्षतिग्रस्त

सरकारों की कार्य शैली हाल के वर्षों में कैसे जरूरत व कायदें की हदें लांघती-छलांगती हुई क्रमषः वोटखिंचू होती चलीगयी है, यह योजना-परियोजनाओं के जमीनी पंच वर्षीय शैली से लेपटाॅप-वितरण सरीखे वोटखिंचू वर्चूवल अंदाज तक में पहुंच जाने के नमूने से जगजाहिर हैं। ऐसे रवैये नजरिये का ही दुष्परिणाम है संरक्षण योग्य कई महत्वपूर्ण स्थलों या सरकारी उपक्रमों की घनघोर अनदेखी और ऐसे में उनका तीव्र गति से क्षरण। जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में लावारिस छोड़ दिये गये खूबसूरत सरकारी डाकघरों इसी की छोटी ही किन्तु सरकारी कार्य-दृष्टिकोण में बड़े क्षरण की दुखदायी मिशाल हैं।सबसे दर्दनाक हालत हो गयी है करमा के डाकबंगले की जो ढ़हता हुआ अब कंकाल जैसी हालत में जा पहुंचा है। इसे देखकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को हृदय-मन पर गहरे आघात का ही अनुभव हो सकता है। एकदम जैसे भुतहा खंडहर हो। यह वर्ष 1917 का बना बताया गया। जबकि निसोगी और रामगढ़ के डाकबंगले 1914 के। निसोगी व धंधरौल वाले डाकबंगले तो जरा-सा मरम्मत के बाद तत्काल उपयोग में लाये जाने के लायक हैं ऐसे में जबरन मिटाए जा रहे दोनों डाकबंगले जैसे अपने साथ जारी उपेक्षा अत्याचार की करूण स्वर में वजह पूछ रहे हों। कुछ इस अंदाज में हमारे तो हाथ-पांव से लेकर नाक-कान-मुंह तक सलामत हैं फिर क्यो किया गया हमारा परित्याग। क्या है हममे कमी? क्या बिना किसी वजह के यों त्याग देना उचित है? कोई क्यों नहीं दे रहा जवाब? बेशक ऐसे सवाल विचलित करने वाले हैं। 

धंधरौल बांध के निकट स्थित निसोगी का डाकबंगला हो या रामगढ़ के पास बेलौरी का। दोनों का निर्माण अंग्रेजी शासन के दौरान 1914 में हुआ था। दोनों का निर्माण अग्रेजी साहिबी बंगले की है। बिलायती खपड़े की छप्पर वाले बरामदे सामने निकले हुए है जबकि भीतर ड्राइंग रूम जैसी चैकोर बैठक और इसके अगल-बगल शयन-कक्ष, रसोई भीतरी बरामदें खूबसूरत अंदाज में बने हुए है। इनके उपर है पक्की छत। कुल मिलाकर एक दिलकश और संपूर्ण यूनिट। दर्ज निर्माण काल के हिसाब से दोनों भवन इस साल अपनी शताब्दी का वर्ष देख रहे है। दोनों की छत-दिवारें सलामत है। लावारिस पाकर अराजक तत्वों ने जहां-तहां कुछ क्षति पहुंचायी है। इसके बावजूद कुल मिलाकर भवनों की हालत अब भी ज्यादा खराब नहीं हैं। यह समझना मुष्किल है कि ऐसे भवन आखिर क्यों लम्बे समय से परित्यक्त करके छोड़ हुए है। उन्हें क्यों एकदम लावारिस हालत में छोड़ दिया गया हैं, यह बताने वाला कोई नहीं है। सवाल पूछने पर विभागीय सूत्र बंगले झांकने लग रहे। कुछ इस अंदाज में जैसे, डाकबंगलों की गलत अनदेखी तो उन्हें खूब समझ में आ रही हो लेकिन मामला जब सरकारी पाॅलिसी का हो तो किया क्या जाय। निसोगी डाकबंगले के साथ देश के महान स्वतंत्रता सेनानी व समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया की स्मृति जुड़ी हुई हैं। यहां उन्होंने 32 दिन बिताये थे और महत्वपूर्ण लेखन कार्य पूरा किया था। जाहिर है इस तथ्य के आलोक में यह स्थान राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा हुआ है। ऐसा महत्वपूर्ण स्थल कुछ इस तरह छोड़ दिया गया है कि सही सलामत होकर भी यह छुट्टी मवेशियों और आवारा नषेड़ियों-जुआरियों का अड्डा बना हुआ है। इसकी ऐसी हालत या इसके साथ ऐसा सलूक स्वयं में एक पहेली है। चैकाने वाली बात यह है कि प्रदेष में लोहिया नाम की माला खटखटाने वाले कई बार पहले भी सत्ता में आ चुके है और फिलहाल भी आसीन हैं, इसके बावजूद महान समाजवादी चिंतक की स्मृतियों से जुड़ा निसोगी डाकबंगला क्यों दशकों से लावारिस छोड़ा हुआ है? इसका अब तक उद्धार या सरक्षण क्यों नहीं किया गया?

आजादी के 65 साल के बाद भी पूरा गांव है षिक्षा से कोसों दूर

आजादी के 65 साल भी अगर पूरा गांव ही अनपढ़ हो तो अन्दाजा लगाया जा सकता है कि रेणुकापार के आदिवासी अंचलों को कालापानी क्यों कहा जाता है। दुर्गमता ऐसी कि दुर्गम शब्द की नई परिभाषा गढ़नी पड़े। आजादी के 65 वर्षो बाद भी रेणुकापार के पनारी ग्राम सभा के दुर्गम आदिवासी गांव पल्सों में अभी तक षिक्षा का दीपक नहीं जला है। जोर शोर के साथ प्रचरित सर्वषिक्षा अभियान की जमीनी हकीकत पल्सो गांव में दिखायी पड़ती है। गांव में 15 वर्षो से उपर के ग्रामीणों की बात छोड़े 4 से 14 वर्ष का कोई भी बच्चा विद्यालय का दर्षन कभी नहीं कर पाया हैं। इस गांव की दुर्गमता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों बीते विधानसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल का प्रत्याषी इस गांव तक नहीं पहुंच पाया। गांव से नजदीकी विद्यालय के 15 किमी से ज्यादा दूर होने के कारण कोई भी ग्रामीण अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दिला पाया। रेणुका नदी के तट पर बसे इस गाव तक पहुंचना भी काफी टेढ़ी खीर साबित है। दुर्गम खाड़र से 10 किमीदूर पल्सो तक पहुंचने के लिए लम्बे सूनसान जंगल से होकर गुजरना पड़ता है। नई पीढ़ी को शिक्षा नहीं दिला पाने को लेकर आदिवासी काफी मायूस हैं। वयोवृद्ध जोखन खरवार मायूसी से कहते है कि कई पीढ़ी बड़ी हो गयी लेकिन सभी षिक्षा से दूर रहे। 

यहां विद्यालय नहीं होने के कारण गांव के बच्चों को देष-दुनिया के बारे में कुछ नहीं पता है। लगभग 25 घरों वाले इस गांव की आबादी 200 के करीब है। वर्तमान में 4 से 14 वर्ष के प्रत्यक्ष रूप से देखा जाये तो पल्सो से नजदीकी प्राथमिक विद्यालय 15 किमी दूर खैराही में स्थित है। वर्ममान में पल्सो से नौ किमी दूर खाड़र में प्राथमिक विद्यालय निमार्णाधीन है। लेकिन ग्रामीणों की मानें तो खाड़र तक भी बच्चों को नहीं भेजा जा सकता है। लगभग नौ किमी तक घनघोर जंगल है। पक्की सड़क मार्ग नहीं होने के कारण यह जानलेवा हो सकता है। कुल मिलाकर आजादी के 65 वर्षो बाद भी पूरे गांव के अनपढ़ होने से कई सवाल खड़े हो रहे है।

पचास साल बाद आरक्षण के दंश से मुक्ति

जनपद के चुनावी इतिहास को यादों के दिये की लौ में देखे तो विधान सभा क्षेत्रों की स्थिति का एक आकलन हो आयेगा। थोड़ा पीछे जाये तो 50 साल का इंतजार अब 2012 में खत्म होने जा रहा है। प्रतीक्षा करते-करते आंखे पथरा गयी थी कि कब सामान्य व पिछड़ी जाति के लोगों को भी यहां से विधान सभा के लिए निर्वाचित होने का अवसर मिलेगा। वजह सन् 1962 में हुए नये परिसीमन के कारण जनपद की दो पूर्ण विधानसभा क्षेत्र आरक्षित थे। आंशिक क्षेत्र राजगढ़ भले ही अनारक्षित था लेकिन यहां के नेताओं को इस क्षेत्र से निर्वाचित होने के लिए आवश्यक समीकरण कभी फेवर में नहीं दिखे। पराधीनता काल में तो मिर्जापुर दक्षिणी क्षेत्र में ही यहां का सम्पूर्ण क्षेत्र रहा करता था। स्वाधीनता के बाद 1951 में परिसीमन हुआ तो राबर्टसगंज एवं दुद्धी विधान सभा अस्तित्व में आ गया। तब एक सीट से दो विधायक निर्वाचित होते थे। एक सामान्य जाति का तो दूसरा अनुसूचित जाति का प्रत्याशी एक साथ चुनाव लड़ते थे। मतदाता दो प्रत्याषी का चुनाव करते थे। दोनों जन प्रतिनिधि एक साथ क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे। इसी व्यवस्था को सन् 1952.1957 तक जारी रखा गया। सन् 1962 में नये परिसीमन में व्यवस्था बदल दी गयी। राबर्टसगंज एवं दुद्धी क्षेत्र में बिना परिवर्तन किये इन दोनों सीटों को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया। अब इन सीटों में केवल अब अनुसूचित जाति के उम्मीदवार ही चुनाव लड़ सकते थे। इसमें खासियत यह थी कि अनुसूचित जन जाति के लोग भी चुनाव लड़ सकते थे। क्योंकि तब अनुसूचित जन जातियों को संवैधानिक दर्जे के दायरे में नहीं लाया गया था। इसका लाभ भी मिला अनुसूचित जन जाति के रामप्यारे पनिका दो बार और विजय सिंह गोड़ लगातार सात बार दुद्धी से विधायक निर्वाचित हुए थे। तीसरी बार नये परिसीमन में सोनभद्र में दो और विधानसभा क्षेत्र घोरावल और ओबरा के नाम से सृजित हो गये है। इस तरह से 2012 के विधानसभा सामान्य निर्वाचन में अब चार विधायक निर्वाचित होंगे। इसमें राबर्टसगंज, घोरावल और ओबरा विधानसभा क्षेत्र अनारक्षित है अर्थात अब सामान्य एवं पिछड़ी जाति के उम्मीदवारों को भी मत पाने का अधिकार मिल गया है बावजूद इसके दुद्धी विधान सभा क्षेत्र अब भी अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित ही है। इसका मतलब साफ है कि अभी भी सामान्य एवं पिछड़ी जाति के लोगों को दुद्धी विधान सभा क्षेत्र में तो मतदान का अधिकार मिला है लेकिन उन्हें मत प्राप्त करने का मौका नहीं दिया गया है। इसी के साथ अब अनुसूचित जन जाति के लोग भी यहां केवल वोटर और सपोर्टर बन कर रह गये है। अब की बार 2012 में यहां से तीन अनारक्षित एवं एक आरक्षित सीट से चुनकर विधायक जायेंगे तो लोगों की उम्मीद के लिए सरकार पर दबाव बना सकेंगे।