शनिवार, 14 जून 2014

उर्जांचल के विस्थापितों के दशकों का दर्द, आज भी नहीं मिला न्याय

ः पुर्नवास के नाम पर बेलवादह के परिवारों को मिलेमात्र एक लाख 
ः कोर्ट के फैसले के बावजूद भी नहीं मिल प् रहा है शतप्रतिशत पुर्नवास लाभ 
ः तीन वर्षों से चल रही है पुनर्वास लाभ वितरण की प्रक्रिया

नक्सल समस्या आज राष्ट्रीय समस्या है और इससे निपटने का कार्य सिर्फ क¢न्द्र सरकार का ही नहीं बल्कि प्रभावित राज्य सरकारो का भी है। कुछ राज्यों ने सुरक्षा और अन्य प्रभावी योजनाओं के लिए तमाम कदम उठाये हैं लेकिन उ.प्र. सरकार अपने राज्य के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिले सोनभद्र में ऐसी कोई कवायद शुरू करने के मूड में नहीं है। 1950 के बाद रिहन्द बांध बनने के उपरान्त सोनभद्र को उर्जांचल के रूप में विकसित किया जाने गा साथ ही औद्योगिक विकास को लेकर कदम भी उठाये गये।

ओबरा, अनपरा ताप विद्युत परियोजना तथा एनटीपीसी हिण्डाल्को इण्डस्ट्रीज, जे.पी.सिमेण्ट, लैंको पावर सहित तमाम औद्योगिक प्रतिष्ठान सोनभद्र में स्थापित हैं बावजूद इसके गरीब आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण करने के बाद भी उनसे किये गये वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं मिला।  लिहाजा विस्थापित/आदिवासी आज अपने हक के लिए किसी भी हद तक जाने की बात कर रहा है। उ.प्र. सरकार नक्स प्रभावित जिा सोनभद्र क¢ आदिवासियों को लेकर कितना संजीदा है इसका अन्दाजा इसी बात से गाया जा सकता है कि विद्युत इकाई सी बनने के लिए जिन आदिवासियों ने अपनी भूमि दी उन्हें नौकरी नहीं मिलि और उस जमीन को लैंको पावर प्राइवेट लिमिटेड को स्थानान्तरित कर दी गयी। जिस पर आज लैंको की चिमनियों से विस्थापितों की आहे निकल रही है। विस्थापित प्रतिनिधियों द्वारा इस बात पर सवा पुछे जाने पर उ.प्र.पावर कारपोरेशन के अधिकारी इसे शासनादेश बतातें हैं, और इस प्रकरण से अपना पल्ला झाड़ लेते है। 

पंकज मिश्रा
" विस्थापितों का प्रतिनिधित्व करने वो गैर सरकारी संगठन सयोग के सचिव पंकज मिश्रा द्वारा य बताया जाता है कि सार्वजनिक प्रयोजन हेतु किये गये भूमि अधिग्रण में जो भूमि अधिग्रति की जाती है से किसी नीजि कम्पनी को लीज पर देने का अधिकार उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत त्पादन निगम को नहीं है, तथा राज्य सरकार की नई भूमि अधिग्रण नीति के तहत यदि किसी नीजि कम्पनी को सार्वजनिक प्रयोजन हेतु अधिग्रहित की गयी भूमि दी जाती है तो से कम्पनी में शतप्रतिशत भूमि अधिग्रहण से प्रभावित परिवार के एक सदस्य को स्थायी सेवा योजन प्रदान किया जायेगा। जबकि लैंको द्वारा इसे एक सिरे से नकार दिया जाता है। लैंको द्वारा बताया जाता है कि ऐसा कोई अनुबंध भूमि स्तानांतरण के अनुबंध पत्र में निगम द्वारा नीं रखा गया है। "


शक्ति आनन्द
" ग्राम पंचायत सदस्य ओढ़ी शक्ति आनन्द का कहना है कि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र की समस्या सुझाने में यहाँ के स्थानीय जनप्रतिनिधियों की काफी जिम्मेदारी होती है और इस समस्या की बाबत क्षेत्रीय विधायक से स्तक्षेप करने का अनुरोध किया गया तो गया तो उन्होंने इस प्रकरण को सदन में उठाने की बात कह कर अपना पल्ला झाड लिया। जिम्मेदारी लेना तो दूर इस समस्या को सुझाने का उनके पास कोई विकल्प नहीं। श्री आनन्द ने यह भी बताया कि वर्तमान में जो पूर्नवास प्रस्ताव परियोजना द्वारा बनाकर पुर्नवास लाभ बाटा जा रहा  है व सिर्फ विस्थापितों के साथ न्याय की एक खानापूर्ति है। क्योंकि इस पुर्नवास प्रस्ताव में ग्राम बेलवादह व बासी के प्रभावित परिवारों को सूचीबद्ध नहीं किया गया है तथा हजारो परिवारों को पुर्नवास लाभ प्रस्ताव से वंचित रखा गया है। जिनका नाम विभिन्न कारणों की वजह से परियोजना के प्रभावित परिवारों की सूची में दर्ज नहीं हो पाया है। "

हरदेव सिंह 
ग्राम सभा बेलवादह के ग्राम प्रधान हरदेव सिंह ने बताया कि वर्तमान में प्रस्तावित पूर्नवास लाभ सूची में बेलवादह के विस्थापितों को वंचित रखने की वजह से यहाँ के विस्थापितों में परियोजना के इस रवैये को लेकर बहुत आक्रोस त्पन्न हुआ है। जिससे कि परियोजना के कार्य को ग्रामीणों द्वारा रोककर विरोध दर्ज कराया गया था। जिस पर परियोजना कहती है कि यहाँ के विस्थापितों को वर्ष २००२ में  ही पुर्नवास लाभ व प्रतिकर दिया जा चुका है। जबकि उस समय बाटी गयी राशि का पुर्नवास लाभ से कोई लेना देना नहीं है। जिसकी आ़ड में परियोजना हमें पुर्नवास लाभ  सें वंचित रख रही है। इस विषय पर प्रभावित परिवार माननीय सर्वोंच्च न्यायाय के अगकी सुनवाई का इंतजार कर रे है।


कुल मिलाकर इस कहानी में कुछ ऐसे कटु आध्याय हैं जिसे देखकर देश के लोकतान्त्रिक स्वरूप को भी शर्म आयेगी। १९७८ में इस परियोजनाओं की शुरूआत के दौरान तत्कालीन सरकार ने आदिवासियों के पुर्नवास और नौकरी के लिए बड़े  निर्णय लिए थे फिर बाद की सरकारों ने इन परियोजनाओं को पैसा बनाने की मशीन बना लिया। बीते दो दशकों से इन आदिवासियों का विष्य कागजों में दबा हुआ है और आदिवासियों के हित में आवाज उठाने वो लोगो को सत्याग्रह करने की वजह से जेल भी जाना पड़ा। तमाम सरकारी चक्रव्यू में फंसा यह मामाला सुप्रीम कोर्ट के  संज्ञान में है। जिस पर कोर्ट ने बीते वर्ष २०१२  में अपना फैसा विस्थापितों के  पक्ष में दे दिया है फिर भी कोर्ट के  इस फैसेले का शतप्रतिशत अनुपान नहीं किया जा रहा है। जो हजारो आदिवासियों के विष्य को लेकर लोकतान्त्रिक स्वरूप में मांग कर रहे आदिवासी समुदाय के लोगो को राज्य सरकार अपना जवाब लाठी और डंडो से दे रही है।

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