आजादी के 65 साल भी अगर पूरा गांव ही अनपढ़ हो तो अन्दाजा लगाया जा सकता है कि रेणुकापार के आदिवासी अंचलों को कालापानी क्यों कहा जाता है। दुर्गमता ऐसी कि दुर्गम शब्द की नई परिभाषा गढ़नी पड़े। आजादी के 65 वर्षो बाद भी रेणुकापार के पनारी ग्राम सभा के दुर्गम आदिवासी गांव पल्सों में अभी तक षिक्षा का दीपक नहीं जला है। जोर शोर के साथ प्रचरित सर्वषिक्षा अभियान की जमीनी हकीकत पल्सो गांव में दिखायी पड़ती है। गांव में 15 वर्षो से उपर के ग्रामीणों की बात छोड़े 4 से 14 वर्ष का कोई भी बच्चा विद्यालय का दर्षन कभी नहीं कर पाया हैं। इस गांव की दुर्गमता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों बीते विधानसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल का प्रत्याषी इस गांव तक नहीं पहुंच पाया। गांव से नजदीकी विद्यालय के 15 किमी से ज्यादा दूर होने के कारण कोई भी ग्रामीण अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दिला पाया। रेणुका नदी के तट पर बसे इस गाव तक पहुंचना भी काफी टेढ़ी खीर साबित है। दुर्गम खाड़र से 10 किमीदूर पल्सो तक पहुंचने के लिए लम्बे सूनसान जंगल से होकर गुजरना पड़ता है। नई पीढ़ी को शिक्षा नहीं दिला पाने को लेकर आदिवासी काफी मायूस हैं। वयोवृद्ध जोखन खरवार मायूसी से कहते है कि कई पीढ़ी बड़ी हो गयी लेकिन सभी षिक्षा से दूर रहे।
यहां विद्यालय नहीं होने के कारण गांव के बच्चों को देष-दुनिया के बारे में कुछ नहीं पता है। लगभग 25 घरों वाले इस गांव की आबादी 200 के करीब है। वर्तमान में 4 से 14 वर्ष के प्रत्यक्ष रूप से देखा जाये तो पल्सो से नजदीकी प्राथमिक विद्यालय 15 किमी दूर खैराही में स्थित है। वर्ममान में पल्सो से नौ किमी दूर खाड़र में प्राथमिक विद्यालय निमार्णाधीन है। लेकिन ग्रामीणों की मानें तो खाड़र तक भी बच्चों को नहीं भेजा जा सकता है। लगभग नौ किमी तक घनघोर जंगल है। पक्की सड़क मार्ग नहीं होने के कारण यह जानलेवा हो सकता है। कुल मिलाकर आजादी के 65 वर्षो बाद भी पूरे गांव के अनपढ़ होने से कई सवाल खड़े हो रहे है।
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