ऽ करमा का बंगला भुतहा, निसोगी व बेलौरी के भवन भी क्षतिग्रस्त
सरकारों की कार्य शैली हाल के वर्षों में कैसे जरूरत व कायदें की हदें लांघती-छलांगती हुई क्रमषः वोटखिंचू होती चलीगयी है, यह योजना-परियोजनाओं के जमीनी पंच वर्षीय शैली से लेपटाॅप-वितरण सरीखे वोटखिंचू वर्चूवल अंदाज तक में पहुंच जाने के नमूने से जगजाहिर हैं। ऐसे रवैये नजरिये का ही दुष्परिणाम है संरक्षण योग्य कई महत्वपूर्ण स्थलों या सरकारी उपक्रमों की घनघोर अनदेखी और ऐसे में उनका तीव्र गति से क्षरण। जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में लावारिस छोड़ दिये गये खूबसूरत सरकारी डाकघरों इसी की छोटी ही किन्तु सरकारी कार्य-दृष्टिकोण में बड़े क्षरण की दुखदायी मिशाल हैं।सबसे दर्दनाक हालत हो गयी है करमा के डाकबंगले की जो ढ़हता हुआ अब कंकाल जैसी हालत में जा पहुंचा है। इसे देखकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को हृदय-मन पर गहरे आघात का ही अनुभव हो सकता है। एकदम जैसे भुतहा खंडहर हो। यह वर्ष 1917 का बना बताया गया। जबकि निसोगी और रामगढ़ के डाकबंगले 1914 के। निसोगी व धंधरौल वाले डाकबंगले तो जरा-सा मरम्मत के बाद तत्काल उपयोग में लाये जाने के लायक हैं ऐसे में जबरन मिटाए जा रहे दोनों डाकबंगले जैसे अपने साथ जारी उपेक्षा अत्याचार की करूण स्वर में वजह पूछ रहे हों। कुछ इस अंदाज में हमारे तो हाथ-पांव से लेकर नाक-कान-मुंह तक सलामत हैं फिर क्यो किया गया हमारा परित्याग। क्या है हममे कमी? क्या बिना किसी वजह के यों त्याग देना उचित है? कोई क्यों नहीं दे रहा जवाब? बेशक ऐसे सवाल विचलित करने वाले हैं।
धंधरौल बांध के निकट स्थित निसोगी का डाकबंगला हो या रामगढ़ के पास बेलौरी का। दोनों का निर्माण अंग्रेजी शासन के दौरान 1914 में हुआ था। दोनों का निर्माण अग्रेजी साहिबी बंगले की है। बिलायती खपड़े की छप्पर वाले बरामदे सामने निकले हुए है जबकि भीतर ड्राइंग रूम जैसी चैकोर बैठक और इसके अगल-बगल शयन-कक्ष, रसोई भीतरी बरामदें खूबसूरत अंदाज में बने हुए है। इनके उपर है पक्की छत। कुल मिलाकर एक दिलकश और संपूर्ण यूनिट। दर्ज निर्माण काल के हिसाब से दोनों भवन इस साल अपनी शताब्दी का वर्ष देख रहे है। दोनों की छत-दिवारें सलामत है। लावारिस पाकर अराजक तत्वों ने जहां-तहां कुछ क्षति पहुंचायी है। इसके बावजूद कुल मिलाकर भवनों की हालत अब भी ज्यादा खराब नहीं हैं। यह समझना मुष्किल है कि ऐसे भवन आखिर क्यों लम्बे समय से परित्यक्त करके छोड़ हुए है। उन्हें क्यों एकदम लावारिस हालत में छोड़ दिया गया हैं, यह बताने वाला कोई नहीं है। सवाल पूछने पर विभागीय सूत्र बंगले झांकने लग रहे। कुछ इस अंदाज में जैसे, डाकबंगलों की गलत अनदेखी तो उन्हें खूब समझ में आ रही हो लेकिन मामला जब सरकारी पाॅलिसी का हो तो किया क्या जाय। निसोगी डाकबंगले के साथ देश के महान स्वतंत्रता सेनानी व समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया की स्मृति जुड़ी हुई हैं। यहां उन्होंने 32 दिन बिताये थे और महत्वपूर्ण लेखन कार्य पूरा किया था। जाहिर है इस तथ्य के आलोक में यह स्थान राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा हुआ है। ऐसा महत्वपूर्ण स्थल कुछ इस तरह छोड़ दिया गया है कि सही सलामत होकर भी यह छुट्टी मवेशियों और आवारा नषेड़ियों-जुआरियों का अड्डा बना हुआ है। इसकी ऐसी हालत या इसके साथ ऐसा सलूक स्वयं में एक पहेली है। चैकाने वाली बात यह है कि प्रदेष में लोहिया नाम की माला खटखटाने वाले कई बार पहले भी सत्ता में आ चुके है और फिलहाल भी आसीन हैं, इसके बावजूद महान समाजवादी चिंतक की स्मृतियों से जुड़ा निसोगी डाकबंगला क्यों दशकों से लावारिस छोड़ा हुआ है? इसका अब तक उद्धार या सरक्षण क्यों नहीं किया गया?
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