आईबीएन-7 | Sep 01, 2009 at 03:27pm
सोनभद्र। दुनिया तेजी से बदल रही है और इस बदलती दुनियां में हम पुरानी परम्पराएं, अपनी सभ्यता, संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। इसलिए हम साफ हवा, पानी, छांव देने वाली प्रकृति की अनदेखी करने लगे हैं और जो संताने इसकी गोद में पल रही हैं हम उनको ही उनके अधिकारों से दूर कर रहे हैं।
बात हो रही है सोनभद्र के उन आदिवासियों की जो सालों से अपने जंगल को बचाने और उस पर मालिकाना हक पाने के लिए सालों से लड़ रहे हैं। अभय सिंह सोनभद्र के दुद्धी के रहने वाले हैं। उनकी लड़ाई है उन आदिवासियों के लिए जो अपनी परम्परागत भूमि पर मालिकाना हक पाने के लिए दशकों से इंतजार कर रहे हैं क्योंकि उनकी ज़मीन सरकार ने उनसे छीन ली है। जब भी आदिवासियों की ज़मीन का मुद्दा उठता है प्रशासन एक नया आश्वासन दे देता है। अभय इसी मुद्दे को लेकर एसडीएम से मिलने पहुंचे। उन्हें फिर एक और आश्वासन मिल गया। दरअसल प्रशासनिक अधिकारियों को एहसास ही नहीं है कि जिन हज़ारों आदिवासियों से उनकी ज़मीन छीन ली गई है वे किस तरह जीवन बिता रहे हैं।
जंगल और पहाड़ों से घिरे उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिल में करीब 14 लाख की आबादी है। इस इलाके में आधे से ज्यादा लोग आदिवासी हैं। इनकी रोजी रोटी का जरिया है जंगल। ज्यादातर आदिवासी झूम खेती करते हैं यानी कुछ साल एक स्थान पर खेती करने के बाद दूसरी जगह जाकर खेती करना ताकी ज़मीन की उर्वरकता बनी रहे। ऐसे वे सदियों से करते आ रहे हैं। इन आदिवासियों की दिक्कत तब शुरू हुई जब 1980 में केन्द्र सरकार ने देश भर में वन अधिनियम लागू किया। इससे पहले कि आदिवासियों को इस अधिनियम के बारे में बताया या समझाया जाता अधिनियम के तहत उन्हें जंगल से बाहर कर दिया गया। उनके जो खेत खलिहान थे उस पर वन विभाग का कब्जा हो गया। अनपढ़ और सीधे साधे आदिवासियों की समझ में ही नहीं आया कि अचानक ये क्या हो गया।
ज़मीन और झोपड़ियां छिन जान के बाद दर बदर होकर भिखारियों से बदतर ज़िंदगी गुज़ार रहे आदिवासियों को उनका हक़ दिलाने के लिये बनवासी सेवा आश्रम नाम की संस्था ने वन अधिनियम के खिलाफ 1985 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली जिस पर कोर्ट ने नए सिरे से सर्वे कर जमीन पर आदिवासियों को अधिकार देने का आदेश दिया। लेकिन ये आदेश आदिवासियों के लिए एक नई मुश्किल बन गया। कोर्ट के इस आदेश की आड़ में सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत देकर उन बाहरी लोगों ने जिनका कभी इस जंगल से वास्ता नहीं था। आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर लिया।
आदिवासियों ने इस ज़्यादती के खिलाफ़ संगठित हो कर आवाज़ उठायी तो केन्द्र सरकार ने दिसम्बर 2006 में अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासी अधिनियम पारित किया। इसके तहत आदिवासियों को उनके जंगल में जमीन का हक मिलेगा। इसके अलावा जो आदिवासी नहीं हैं लेकिन 75 सालों से जंगल में रह रहे हैं उनको भी जमीन पर कब्जा मिलेगा। इस काम के लिये 4 कमेटियां बनाई गई। लेकिन जब अभय ने सूचना के अधिकार के तहत कमेटी की सूची मांगी तो ये जानकर आश्चर्य हुआ कि बिना गांव के लोगों को शामिल किए इन कमेटियों का गठन कर दिया। जिन लोगों को इन कमेटियों का पदाधिकारी बताया गया था उनको ही इस बात की जानकारी नहीं थी कि वो इसके सदस्य हैं।
जब अभय कुछ गांव वालों को इकठ्ठा कर मामले को अफसरों के सामने ले गए तो अक्टूबर 2008 में नए सिरे से नई ग्राम स्तर की कमेटी गठन करने का आदेश हुआ। कमेटी के सामने लगभग 55 हज़ार लोगों ने अपने दावे पेश किये। ये दावे आज तक कमेटी के दफ़्तर में धूल खा रहे हैं लेकिन एक भी दावेदार को जांच के बाद जमीन का पट्टा नहीं मिला है। इस तरह कल तक जो आदिवासी जल-जंगल-जमीन के मालिक थे आज दर बदर हैं। लेकिन ऐसा अधिक दिनों तक नहीं चल सकता। प्रशासन कितनी भी गहरी नींद में क्यों ना सो जाए अभय उसे जगा कर ही दम लेंगे।
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