बुधवार, 16 जुलाई 2014

हर शाख पे एंडरसन बैठा है...................... उर्फ कथा सोनभद्र की!

बिके हुए हैं अखबार, कहीं कोई खबर नहीं

ये देश में हर जगह पैदा हो रहे भोपाल का किस्सा है। ये हिंदुस्तान के स्विट्जरलेंड की तबाही का किस्सा है। ये रिहंद बांध में अपने महल के साथ डूब गयी रानी रूपमती का किस्सा है। ये मंजरी के डोले का किस्सा है और ये लोरिक की बलशाली भुजाओं को आज तक महसूस कर रहे चट्टानों का किस्सा है। ये किस्सा इसलिए भी है क्योंकि हम एक ऐसे देश में जी रहे हैं, जहां मौजूद मीडिया को ये मुगालता है कि वो देश-काल को बदलने का दमखम रखता है। हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद की! हम इसे देश की ऊर्जा राजधानी कहते हैं। ये देश का सबसे बड़ा एनर्जी पार्क है। सोनभद्र सिंगरौली पट्टी के लगभग 40 वर्ग किमी क्षेत्र में लगभग 18000 मेगावाट क्षमता के आधा दर्जन बिजलीघर मौजूद हैं, जो देश के एक बड़े हिस्से को बिजली मुहैया करते हैं। अगले पांच वर्षों में यहां रिलायंस और एस्सार समेत निजी और सार्वजानिक कंपनियों के लगभग 20 हजार मेगावाट के अतिरिक्त बिजलीघर लगाये जाएंगे। बिरला जी का अल्युमीनियम और कार्बन, जेपी का सीमेंट और कनोडिया का रसायन कारखाना यहां पहले से मौजूद है। यह इलाका स्टोन माइनिंग के लिए भी पूरे देश में मशहूर है। यहां पांच लाख आदिवासी भी मौजूद हैं, जिन्हें दो जून की रोटी भी आसानी से मयस्सर नहीं होती।

सोनभद्र की एक और पहचान भी है। यहां आठ नदियां हैं, जिनका पानी पूरी तरह से जहरीला हो चुका है। यह इलाका देश में कुल कार्बन डाइऑक्साइड के उत्स्सर्जन का 16 फीसदी अकेले उत्सर्जित करता है। सीधे सीधे कहें तो यहां चप्पे चप्पे पर यूनियन कार्बाइड जैसे दानव मौजूद हैं, इसके लिए सिर्फ सरकार और नौकरशाही तथा देश के उद्योगपतियों में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने के लिए मची होड़ ही जिम्मेदार नहीं है। सोनभद्र को ध्वंस के कगार पर पहुंचाने के लिए बड़े अखबारी घरानों और अखबारनवीसों का एक पूरा कुनबा भी जिम्मेदार है। कैसे पैदा होता है भोपाल, क्यों बेमौत मरते हैं लोग? अब तक वारेन एंडरसन के भागे जाने पर हो हल्ला मचाने वाला मीडिया कैसे नये नये भोपाल पैदा कर रहा है, आइए हम आपको इसकी एक बानगी दिखाते हैं।

मौत की चिमनियां..................

मरता हुआ रिहंद....................

यहां भी खामोश है मीडिया.......

कनोडिया कैमिकल देश में खतरनाक रसायनों का सबसे बड़ा उत्पादक है। कनोडिया के जहरीले कचरे से हर साल औसतन 40 से 50 मौतें होती हैं। हजारों की संख्या में लोग आंशिक या पूर्णकालिक विकलांगता के शिकार होते हैं, मगर खबर नहीं बनती, क्योंकि कनोडिया अखबारों की जुबान बंद करने का तरीका जनता है। पिछले वर्ष दिसंबर माह में उत्तर प्रदेश-बिहार सीमा पर मौजूद सोनभद्र के कमारी डांड गांव में कनोडिया द्वारा रिहंद बांध में छोड़ा गया जहरीला पानी पीकर 20 जानें चली गयीं। उसके पहले विषैले पानी की वजह से हजारों पशुओं की मौत भी हुई थी, मगर जनसत्ता को छोड़कर किसी भी अखबार ने खबर प्रकाशित नहीं की। जबकि जांच में ये साबित हो चुका था मौतें प्रदूषित जल से हुई हैं। हां, ये जरूर हुआ कि इन मौतों के बाद सभी अखबारों ने कनोडिया के बड़े बड़े विज्ञापन प्रकाशित किये थे।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। इसके पहले 2005 जनवरी में भी कनोडिया के अधिकारियों की लापरवाही से हुए जहरीली गैस के रिसाव से पांच मौतें हुईं। मीडिया खामोश रहा। मीडिया अब भी खामोश है, जब सोनभद्र के गांव के गांव फ्लोरोसिस की चपेट में आकर विकलांग हो रहे हैं। यहां के पडवा कोद्वारी, कुसुम्हा इत्यादि गांवों में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो फ्लोरोसिस का शिकार न हो। जांच से ये बात साबित हो चुकी है कि फ्लोराइड का ये प्रदूषण कनोडिया और आदित्य बिरला की हिंडाल्को द्वारा गैर जिम्मेदाराना तरीके से बहाये जा रहे अपशिष्टों की वजह से है। बिरला जी की इस बरजोरी के खिलाफ लिखने का साहस शायद किसी भी अखबार ने कभी नहीं किया। हां, वाराणसी से प्रकाशित “गांडीव” ने एक बार हिंडाल्को द्वारा रिहंद बांध में बहाये जा रहे कचरे पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी।

शायद ये विश्वास करना कठिन हो, मगर सच है कि आज तक हिंदी दैनिकों ने अपने सोनभद्र के कार्यालयों पर सालाना विज्ञापन का लक्ष्य एक से डेढ़ करोड़ निर्धारित कर रखा है। इनमें वो विज्ञापन शामिल नहीं हैं जो जेपी और हिंडाल्को समेत राज्य या केंद्र सरकार की कंपनियां सीधे या एजेंसियों के माध्यम से देती हैं। अगर इन सबको शामिल कर लिया जाए तो सोनभद्र से प्रत्येक अखबार को सालाना 8 से 10 करोड़ रुपये का विज्ञापन मिलता है। इन अतिरिक्त विज्ञापनों का लक्ष्य यहां के गिट्टी बालू के खनन क्षेत्रों से प्राप्त किया जाता है। ये खनन क्षेत्र जिन्हें “डेथ वेली” कहते हैं और जो सरकार प्रायोजित भ्रष्टाचार और वायु एवं मृदा प्रदूषण का पूरे देश में सबसे बड़ा उदाहरण बने हुए हैं। पर कोई भी अखबार कलम चलने का साहस नहीं करता। और तो और यहां की खदानों से निकलने वाली भस्सी ने हजारों एकड़ जमीन को बंजर बना डाला। खबरें न छापने की एक और वजह है। सोनभद्र में ज्यादातर पत्रकारों की अपनी खदानें और क्रशर्स हैं। जिनकी नहीं हैं, उनकी भी रोजी रोटी इन्हीं की वजह से चल रही है। खबरें न छापने की कीमत वसूलना अखबार भी जानते हैं, पत्रकार भी।

सोनभद्र के बिजलीघरों से प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ टन पारा निकलता है। हालत ये है कि यहां के लोगों के बालों, रक्त और यहां की फसलों तक में पारे के अंश पाये गये हैं। इसका असर भी आम जन मानस पर साफ दिखता है। उड़न चिमनियों की धूल से सूरज की रोशनी छुप जाती है और शाम होते ही चारों और कोहरा छा जाता है। इस भारी प्रदूषण से न सिर्फ आम इंसान मर रहे हैं बल्कि गर्भस्थ शिशुओं की मौत के मामले भी सामने आ रहे हैं। मगर खबरें नदारद हैं। वजह साफ है। सभी अखबारों के पन्ने दर पन्ने प्रदेश के ऊर्जा विभाग के विज्ञापनों से पटे रहते हैं। सैकड़ों की संख्या में मंझोले अखबार तो ऐसे हैं, जो बिजली विभाग के विज्ञापनों की बदौलत चल रहे हैं। ये एक कड़वा सच है कि उत्तर प्रदेश सरकार के ओबरा और अनपरा बिजलीघरों को पिछले एक दशक से केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनापत्ति प्रमाणपत्र के बिना चलाया जा रहा है। जबकि बोर्ड ने इन्हें बेहद खतरनाक बताते हुए बंद करने के आदेश दिये हैं। मगर खबर नदारद है। सिर्फ सोनभद्र में ही नहीं, देश के कोने-कोने में भोपाल पैदा हो रहे है, अखबार के पन्नों पर वारेन एंडरसन सुर्खियों में है। और हम, खुश हैं कि मीडिया अपना काम कर रहा है।
 -------------------------------------------------------------------------
लेखक - आवेश तिवारी लखनऊ और इलाहाबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज एक्टिविस्ट में ब्यूरो प्रमुख। पिछले सात वर्षों से विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद की पर्यावरणीय परिस्थितियों का अध्ययन और उन पर रिपोर्टिंग कर रहे हैं। आवेश से awesh29@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें